G00 (क) विश्व विख्यात ग्रंथ श्रीमद्भागवत्गीता में योग शब्द के रहस्यमय वर्णन ।। श्रीगीता-योग-प्रकाश की भुमिका से - SatsangdhyanGeeta

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G00 (क) विश्व विख्यात ग्रंथ श्रीमद्भागवत्गीता में योग शब्द के रहस्यमय वर्णन ।। श्रीगीता-योग-प्रकाश की भुमिका से

श्रीगीता-योग-प्रकाश / भुमिका  क

प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।

इस पोस्ट में इसी पुस्तक के भूमिका के बारे में जानकारी दी गई है और विश्व साहित्य की सबसे बड़ी पुस्तक, विश्व विख्यात ग्रंथ श्रीमद्भागवत्गीता, श्री गीता जी का अर्थ, श्री गीता जी की विशेषता, उपनिषदों का सार, योग विद्या के समस्त सार संक्षेप, भारत वासियों की शान, विश्व कल्याण के सार बातें, विश्ववन्द्या श्रीमद्भागवत गीता, श्रीमद्भागवत गीता में योग शब्द के रहस्यमय वर्णन, श्री गीता जी के अनुसार कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि का विश्लेषण आदि बातों वर्णन किया गया है। तो आइए इस बारे में जानकारी प्राप्त करने के पहले सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें

5 मिनट में गीता ज्ञान की जानकारी के विषय में जानने के लिए इस पुस्तक की प्रकाशकीय पढ़ने के लिए     यहां दवाएं


श्रीमद्भागवत गीता में योग से संबंधित बातों पर गंभीर चिंतन मनन करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

विश्व विख्यात ग्रंथ श्रीमद्भागवत्गीता में योग शब्द के रहस्यमय वर्णन

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज 'श्रीगीता-योग-प्रकाश' पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं -   "vishv saahity kee sabase badee pustak, vishv vikhyaat granth shreemadbhaagavatgeeta, shree geeta jee ka arth, shree geeta jee kee visheshata, upanishadon ka saar, yog vidya ke samast saar sankshep, bhaarat vaasiyon kee shaan, vishv kalyaan ke saar baaten, vishvavandya shreemadbhaagavat geeta, shreemadbhaagavat geeta mein yog shabd ke rahasyamay varnan, shree geeta jee ke anusaar karmayog, gyaanayog, dhyaanayog aadi ka vishleshan aadi baaton varnan" श्रीमद्भागवत गीता में किया गया है। इसके सही तात्पर्य को समझना जरूरी है। इसलिए आइए गुरु महाराज द्वारा लिखित भूमिका को ही पढ़ते हैं- 



भूमिका (भाग क)


     भारत के एक बृहत् ग्रन्थ का नाम ' महाभारत ' है । कहा जाता है कि विश्व - साहित्य - भण्डार के पद्यबद्ध ग्रन्थों में यह सबसे विशेष स्थूलकाय है । यह केवल भारत ही नहीं , वरंच सम्पूर्ण विश्व में सुविख्यात है । 

     यह ग्रन्थ अठारह भागों में विभक्त है । इसके प्रत्येक भाग को ' पर्व ' कहते हैं । इन अठारह पर्वो में से एक का नाम ' भीष्मपर्व ' है । इसी भीष्मपर्व के एक छोटे - से भाग का नाम ' श्रीमद्भगवद्गीता ' है । श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ ' भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत ' है । इसलिए इसकी पद्यात्मक भाषा में तार ( टेलीग्राम ) द्वारा भेजे गए सन्देश की - सी संक्षिप्तता है । इसमें केवल ७०० श्लोक हैं तथा सब मिलकर ९ , ४५६ शब्द हैं ।

     नौ हजार चार सौ छप्पन पद्यबद्ध शब्दों में उपनिषदों का सारांश आ गया है । इसीलिए इस पुस्तिका की बड़ी महत्ता है । यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की अध्यात्म - विद्या की सबसे बड़ी देन है । 

     भारत आदिकाल से ही अध्यात्म - ज्ञान एवं योगविद्या का देश रहा है । इस विद्या के कोई गुरु कहीं बाहर से आकर यहाँ वालों को अध्यात्म - ज्ञान एवं योगविद्या की शिक्षा - दीक्षा दे गए हों , ऐसा एक भी उदाहरण भारत के हजारों साल लम्बे इतिहास में नहीं मिलता । उपर्युक्त विद्याओं के गुरु समय - समय पर इसी देश में उत्पन्न होते रहे हैं । 

     पहले की बात तो जाने दीजिए , हजार साल की परतंत्रता से दीनापन्न भारत में भी इन विद्याओं के जानकार पूर्ववत् होते रहे हैं । भारत के स्वतंत्र होने के कुछ ही साल पूर्व श्रीपाल ब्रन्टन नाम के प्रतिष्ठित अँगरेज महाशय योग - विद्याओं के जानकारों की खोज में यहाँ आये और कुछ ही महीने ठहरकर वे जो कुछ जान पाये , उसीसे सन्तुष्ट होकर अपने देश को लौट गये । 

     इस देश को सर्वाधिक गौरव उपर्युक्त विद्याओं पर है और इन विद्याओं को श्रीमद्भगवद्गीता पर गौरव है । इसलिए भारत के बड़े - बड़े साधक - आचार्य श्रीमद्- भगवद्गीता का सहारा लेकर ज्ञान - प्रचार - द्वारा भारत एवं विश्व का कल्याण करते रहे हैं । परिणामस्वरूप भारत - वन्द्य यह पुस्तिका अब विश्ववन्द्या हो चुकी है । विश्व की सभी समुन्नत भाषाओं में आये दिन इसके अनुवाद निकलते ही रहते हैं । अतएव जगद्गुरु भारत के प्रत्येक नागरिक का यह नैतिक उत्तरदायित्व है कि वह इस ग्रन्थ का सही तात्पर्य स्वयं समझे और अन्यों को समझावे । 

     इस उत्तरदायित्व के निवाहने में तनिक भी प्रमाद , असावधानी या भ्रम न केवल भारत , बल्कि विश्व की आध्यात्मिक उन्नति के लिए घातक है । 

      अब प्रश्न यह है कि गीता का सही तात्पर्य क्या है ? ऐहिक एवं पारमार्थिक कल्याण साथ - साथ करते हुए मनुष्य कैसे समता प्राप्त करे और किस तरह कर्म करता हुआ समाधिस्थ हो स्थितप्रज्ञता तक पहुँच सके , इसी के साधन इस शास्त्र में बहुत ही युक्ति - युक्त रीति से बतलाये गये हैं । इस साधन की पूर्णता के लिए योग का अभ्यास अत्यावश्यक है । यहाँ ' योग ' शब्द की सफाई में कुछ कह देना आवश्यक है । गीता के अठारह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय के साथ ' योग ' शब्द लगा हुआ है ; जैसे अर्जुन - विषादयोग , सांख्ययोग , कर्मयोग इत्यादि । इससे गीता के पाठकों को ज्ञात होता है कि इसमें केवल योग - ही - योग है । 

      स्मरण रखने की बात यह है कि गीता में केवल योग की ही बात नहीं है , बल्कि कैसे बैठना चाहिए , कितना खाना चाहिए और कितना सोना चाहिए आदि बातें दे दी गई हैं । 

     यहाँ निवेदन यह है कि गीता में ' योग ' शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है । 

     पहले तो ' योग ' शब्द सुनते ही ' पातञ्जलयोग - दर्शन ' के योग का स्वरूप विचार में आने लगता है । चित्तवृत्ति के निरोध को महर्षि पतञ्जलि ' योग ' कहते हैं । चित्तवृत्ति - निरोध के अर्थ में ' योग ' शब्द गीता में आया है , मगर उसके और दूसरे - दूसरे अर्थ भी हैं ; जैसे - अर्जुन - विषादयोग । 

     यहाँ ' योग ' शब्द का अर्थ ' युक्त होना ' है । अर्जुन विषाद - युक्त हुआ , इसीका वर्णन प्रथम अध्याय में है , इसीलिए उस अध्याय का नाम ' विषादयोग ' हुआ । जिस विषय का वर्णन करके श्रोता को उससे युक्त किया गया , उसको तत्संबंधी योग कहकर घोषित किया गया । 

     अध्याय २ के श्लोक ४८ में कहा गया है - ' समत्वं योग उच्यते ' अर्थात् समता का ही नाम ' योग ' है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ ' योग ' शब्द का अर्थ समता है । 

     पुनः उसी अध्याय के श्लोक ५० में कहा गया है- ' योगः कर्मसु कौशलम् ' अर्थात् कर्म करने की कुशलता या चतुराई को योग कहते हैं । यहाँ ' योग ' शब्द उपर्युक्त अर्थों से भिन्न , एक तीसरे ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । 

     अतएव गीता के तात्पर्य को अच्छी तरह समझने के लिए ' योग ' शब्द के भिन्न - भिन्न अर्थों को ध्यान में रखना चाहिए । 

     गीता स्थितप्रज्ञता को सर्वोच्च योग्यता कहती है और उसकी प्राप्ति का मार्ग बतलाती है । 

     स्थितप्रज्ञता , बिना समाधि के सम्भव नहीं है । इसीलिए गीता के सभी साधनों के लक्ष्य को समाधि कहना अयुक्त नहीं है । 

     इन साधनों में समत्व - प्राप्ति को बहुत ही आवश्यक बतलाया गया है । समत्व- -बुद्धि की तुलना में केवल कर्म बहुत तुच्छ है। ( गीता २ / ४ ९ ) इसलिए समतायुक्त होकर कर्म करने को कर्मयोग कहा गया है । यही ' योगः कर्मसु कौशलम् ' है । अर्थात् कर्म करने की कुशलता को योग कहते हैं । कर्म करने का कौशल यह है कि कर्म तो किया जाय ; परन्तु उसका बंधन न लगने पावे । यह समता पर निर्भर करता है ।

     गीता न सांसारिक कर्तव्यों के करने से हटाती है और न कर्मबंधन में रखती है । 

     समत्व - योग प्राप्त कर स्थितप्रज्ञ बन , कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह , कर्तव्य कर्मों के पालन करने का उपदेश गीता देती है । 

     समत्व - प्राप्त स्थितप्रज्ञ पुरुष कर्म करने में कुशल , सांसारिक कर्मों में फल - आश - भाव से असंग रहता हुआ , कर्म - बंधन - रहित होकर उन कर्मों को जीवन - भर करे और इस तरह जीवन्मुक्त बन जाय - यही कर्मयोग ' गीता सिखलाती है ।

     गीता - ज्ञानानुकूल कर्म - योगी के लिए समत्व और स्थित प्रज्ञता अत्यन्त आवश्यक बतलाए गए हैं । ये दोनों समाधि - साधन में ही प्राप्त होते हैं । ( गीता २/५३ से ) यह विदित होता है तथा गीता अध्याय २ , श्लोक ५४ में तो समाधिस्थ और स्थितप्रज्ञ का कथन निर्भेद भाव में किया गया है ।

     पहले ही कहा जा चुका है कि गीता में बतलाए गए तमाम साधनों का अन्तिम लक्ष्य समाधि है ।

     समाधि - साधन के लिए जिन योगों की आवश्यकता है , उन सबका समावेश गीता में है । गीताशास्त्र के ज्ञानयोग , ध्यानयोग , प्राणायामयोग , जपयोग , भक्तियोग , कर्मयोग आदि सभी योगों की भरपूर उपादेयता है । सब एक - दूसरे से सम्बद्ध हैं और इस तरह सम्बद्ध हैं , जैसे माला की मणिकाएँ ।

     अब अगर कोई कहे कि अमुक योग के अभ्यास करने का युग नहीं है , तो मानना पड़ेगा कि उनकी यह कथनी गीतोपदेश के विरुद्ध है । 

     अन्य कोई कहे तो कहे , मगर कहनेवाले यदि भारत के उत्तम पुरुषों में से कोई हों और भारत के अध्यात्म - जगत् की सर्वोत्तम उपाधि से विभूषित हों यानी “ सन्त ' कहलाते हों , तो स्थिति और गम्भीर हो जाती है । ये सन्त यदि कहें कि ' मेरे जीवन में गीता ने जो - जो स्थान पाया है , उसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता हूँ । गीता का मुझपर अनन्त उपकार है । मेरा शरीर माँ के दूध पर जितना पला है , उससे कहीं अधिक मेरा हृदय व बुद्धि दोनों गीता से पोषित हुए हैं । मैं प्राय : गीता के ही वातावरण में रहता हूँ , गीता यानी मेरा प्राण तत्त्वा ' और फिर वे ही अगर कहें कि ' अब ध्यानयोग - अभ्यास करने का युग नहीं है ' , तो स्थिति गम्भीरतम हो जाती है । और यही विदित होता है कि देश का अमंगलकाल ही चला आया है । ..... क्रमशः।।



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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "श्रीगीता योग प्रकाश" के इस लेख का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि "The greatest book of world literature, the world famous book Shrimad Bhagavatgita, the meaning of Shri Gita ji, the specialty of Shri Gita ji, the essence of Upanishads, all the essence of Yoga, the pride of the people of India, the essence of world welfare, Vishwavandya Shrimad Bhagwat Gita,  According to the mysterious description of the word Yoga in the Shrimad Bhagwat Gita, according to Shri Gita Ji, analysis of Karmayog, Gyanayog, Dhyanayoga etc. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में उपर्युक्तत लेख का पाठ किया गया है- 



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