4. ईश्वर को सब कोई क्यों नहीं जान सकता है?
प्यारे लोगो !
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4.जो जितना विशेष व्यापक होता है , वह उतना ही सूक्ष्म होता है । परमात्मा अपनी सर्वव्यापकता के कारण सबसे विशेष सूक्ष्म है । स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता है । एक बहुत छोटी घड़ी के महीन कील - काँटों को बढ़ई और लोहार की सँड़सी , पेचकश आदि मोटे - मोटे यंत्रों से घड़ी में बिठाने और निकालने के काम नहीं हो सकते उसके लिए यंत्र भी महीन ही होते हैं ।
5. हमारी भीतरी और बाहरी सब इन्द्रियाँ - नेत्र , कर्ण , नासिका , जिह्वा , त्वचा , मुख , हाथ , पैर , गुदा और लिंग - बाहर की इन्द्रियाँ तथा मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार - अन्तर की इन्द्रियाँ ; सब - की - सब उस दर्जे की सूक्ष्म नहीं हैं जो परमात्म - स्वरूप को ग्रहण कर सकें । ये तो परमात्मा की सूक्ष्मता के सम्मुख स्थूल हैं । भला ये उसको कैसे ग्रहण कर सकती हैं ।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृतः ॥
( सा ० , अ ०८ , मं ०३ )
इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! हाथ , पैर गुदा , लिंग , रसना , कान , त्वचा , आँख , नाक और मन - बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना झूठ ही एक खेल करना है ; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता है । वह तो इन्द्रियातीत है ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥
-कनोपनिषद् ( खण्ड १ , श्लोक ५ )
अर्थात् जो मन से मनन नहीं किया जाता , बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है , उसी को तू ब्रह्म जान । जिस इस ( देशाकालाविच्छिन्न वस्तु ) की लोक उपासना करते हैं , वह ब्रह्म नहीं है ।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैषवृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुतेतर्नूस्वाम् ॥ -कठोपनिषद् अ ० १ , वल्ली २ , श्लोक २३ )
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
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