MS05 श्रीगीता-योग-प्रकाश ।। पुस्तक की महत्वपूर्ण जानकारी और विषय- सूची और PDF डाउनलोड - SatsangdhyanGeeta

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MS05 श्रीगीता-योग-प्रकाश ।। पुस्तक की महत्वपूर्ण जानकारी और विषय- सूची और PDF डाउनलोड

 श्रीगीता-योग-प्रकाश

     प्रभु प्रेमियों ! ' श्रीगीता - योग - प्रकाश ' सब श्लोकों के अर्थ वा उनकी टीकाओं की पुस्तिका नहीं है । श्रीगीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण चाहिए , वही इसमें दरसाया गया है ।

श्रीगीता-योग-प्रकाश

श्रीगीता-योग-प्रकाश की महत्वपूर्ण बातें

प्रभु प्रेमियों ! ' योग ' शब्द का अर्थ ' युक्त होना ' है । अर्जुन विषाद युक्त हुआ , इसी का वर्णन प्रथम अध्याय में है , इसीलिए उस अध्याय का नाम ' विषादयोग ' हुआ । जिस विषय का वर्णन करके श्रोता को उससे युक्त किया गया , उसको तत्संबंधी योग कहकर घोषित किया गया । अध्याय २ के श्लोक ४८ में कहा गया है - ' समत्वं योग उच्यते ' अर्थात् समता का ही नाम ' योग ' है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ ' योग ' शब्द का अर्थ समता है । पुनः उसी अध्याय के श्लोक ५० में कहा गया है - ' योगः कर्मसु कौशलम् ' अर्थात् कर्म करने की कुशलता या चतुराई को योग कहते हैं । यहाँ ' योग ' शब्द उपर्युक्त अर्थों से भिन्न , एक तीसरे ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अतएव गीता के तात्पर्य को अच्छी तरह समझने के लिए ' योग ' शब्द के भिन्न - भिन्न अर्थों को ध्यान में रखना चाहिए । 

     गीता स्थितप्रज्ञता को सर्वोच्च योग्यता कहती है और उसकी प्राप्ति का मार्ग बतलाती है । स्थितप्रज्ञता , बिना समाधि के सम्भव नहीं है । इसीलिए गीता के सभी साधनों के लक्ष्य को समाधि कहना अयुक्त नहीं है । इन साधनों में समत्व - प्राप्ति को बहुत ही आवश्यक बतलाया गया है । समत्व - बुद्धि की तुलना में केवल कर्म बहुत तुच्छ है । ( गीता २ / ४ ९ ) इसलिए समतायुक्त होकर कर्म करने को कर्मयोग कहा गया है । यही ' योगः कर्मसु कौशलम् ' है । अर्थात् कर्म करने की कुशलता को योग कहते हैं । कर्म करने का कौशल यह है कि कर्म तो किया जाय ; परन्तु उसका बंधन न लगने पावे । यह समता पर निर्भर करता है । गीता न सांसारिक कर्तव्यों के करने से हटाती है और न कर्मबंधन में रखती है । समत्व - योग प्राप्त कर स्थितप्रज्ञ बन , कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह , कर्तव्य कर्मों के पालन करने का उपदेश गीता देती है ।

     प्रभु प्रेमियों ! "श्रीगीता-योग-प्रकाश " पुस्तक निम्नलिखित चित्र के जैसा प्रकाशित हुआ है और इसके विशष-सूची इत्यादि नीचे दिए जाते हैं-

गीता 1

गीता 2

गीता 3

गीता 5
गीता 6
गीता 6
गीता 7
गीता 8

गीता 9


अनुक्रमणिका

        अध्याय विषय 

प्रकाशकीय 

महर्षिजी का परिचय 

भूमिका 

१. अथ अर्जुन विषादयोग 

२. अथ सांख्ययोग 

३. अथ कर्मयोग 

४. अथ ज्ञानकर्म - संन्यासयोग 

५. अथ कर्म - संन्यासयोग 

७. अथ ज्ञान - विज्ञानयोग 

८. अथ अक्षर ब्रह्मयोग 

९ . अथ राजविद्या - राजगुह्ययोग 

१०. अथ विभूतियोग 

११. अथ विश्वरूपदर्शनयोग 

१२. अथ भक्तियोग 

१४. अथ गुणत्रयविभागयोग 

१५. अथ पुरुषोत्तमयोग 

१६. अथ देवासुर संपद्विभागयोग 

१७. अथ श्रद्धात्रय - विभागयोग 


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प्रभु प्रेमियों ! समाधि - साधन के लिए जिन योगों की आवश्यकता है , उन सबका समावेश गीता में है । गीताशास्त्र के ज्ञानयोग , ध्यानयोग , प्राणायामयोग , जपयोग , भक्तियोग , कर्मयोग आदि सभी योगों की भरपूर उपादेयता है । सब एक - दूसरे से सम्बद्ध हैं और इस तरह सम्बद्ध हैं , जैसे माला की मणिकाएँ । अब अगर कोई कहे कि अमुक योग के अभ्यास करने का युग नहीं है , तो मानना पड़ेगा कि उनकी यह कथनी गीतोपदेश के विरुद्ध है । अन्य कोई कहे तो कहे , मगर कहनेवाले यदि भारत के उत्तम पुरुषों में से कोई हों और भारत के अध्यात्म जगत् की सर्वोत्तम उपाधि से विभूषित हों यानी ' सन्त ' कहलाते हों , तो स्थिति और गम्भीर हो जाती है । ये सन्त यदि कहें कि ' मेरे जीवन में गीता ने जो - जो स्थान पाया है , उसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता हूँ । गीता का मुझपर अनन्त उपकार है । मेरा शरीर माँ के दूध पर जितना पला है , उससे कहीं अधिक मेरा हृदय व बुद्धि दोनों गीता से पोषित हुए हैं । मैं प्रायः गीता के ही वातावरण में रहता हूँ , गीता यानी मेरा प्राण तत्त्वा ' और फिर वे ही अगर कहें कि ' अब ध्यान योग अभ्यास करने का युग नहीं है , तो स्थिति गम्भीरतम हो जाती है । और यही विदित होता है कि देश का अमंगलकाल ही चला आया है ।

     अत: गुरुदेव का यह पुस्तक आप लोग अवश्य खरीद कर इसका संपूर्ण अध्ययन करें और अपने को मोक्ष मार्ग पर अग्रसर करें.

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गीता सार अर्थ सहित

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