G06 (क) श्रीमद्भागवत गीता में ध्यान योग संबंधी भ्रांतियां और उनका निराकरण ।। Bhagavad Gita- 6th Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G06 (क) श्रीमद्भागवत गीता में ध्यान योग संबंधी भ्रांतियां और उनका निराकरण ।। Bhagavad Gita- 6th Chapter

श्रीगीता-योग-प्रकाश / 06 (क) 

प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाशइसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।

इस लेख में बताया गया है  ध्यान योग की विशेषता और महिमा क्या है? ध्यान योग से क्या प्राप्त होता है? ध्यान योग कैसे किया जाता है? योगाभ्यास क्यों करना चाहिए? मन को जीतना क्यों आवश्यक है? मन कैसे जीता जाता है? ध्यानाभ्यास करने का सही समय क्या है? बड़े लोगों का लोग अनुकरण क्यों करते हैं? ध्यान योग के संबंध में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी के विचार क्या है? इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- ध्यान योग के फायदे, ध्यान योग क्या है, ध्यान क्या है और कैसे करे, ध्यान योग विधि, ध्यान का अर्थ और महत्व ध्यान क्या है, ध्यानाभ्यास करने की विश्व की सर्वश्रेष्ठ पद्धति कौन सी है परिभाषा सहित वर्णन कीजिए, ध्यान कितने प्रकार के है, ध्यान तकनीक क्या है, ध्यान योग साधना, ध्यान को परिभाषित, योग ध्यान से आपका क्या तात्पर्य है, योग एवं ध्यान की व्याख्या करें, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।

श्रीगीता-योग-प्रकाश के अध्याय 5 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं 


वेलचेयर से ध्यान योग शिविर का उद्घाटन करते हुए सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

Dhyan Yoga misconceptions in the Shrimad Bhagwat Gita and their solution

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं What is the specialty and glory of meditation yoga?  What does meditation achieve by yoga?  How is meditation done?  Why should one practice yoga?  Why is it necessary to win the mind?  How does the mind win?  What is the right time to meditate?  Why do people follow the big guys?  What are the views of Lokmanya Bal Gangadhar Tilak and Mahatma Gandhi regarding meditation yoga? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-


अध्याय ६

अथ ध्यानयोग 

इस अध्याय का विषय ध्यानयोग है । 

     प्रथम अध्याय का विषय ' अर्जुन - विषाद - योग ' था । द्वितीय अध्याय में विषाद दूर करने के हेतु श्रीभगवान ने सांख्ययोग अर्जुन को सुनाया । आत्मा की अमरता तथा शरीर ( अनात्मा ) की नश्वरता के ज्ञान को ही सांख्यज्ञान वा अध्यात्मज्ञान श्रीमद्भगवद्गीता के अनुकूल जानना चाहिए ।

     आत्मज्ञान से जब बुद्धि स्थिर हो जाती है , तब समत्व प्राप्त होता है । समत्व से द्वैत और द्वन्द्व मिटते हैं तथा सब दुःखों को दूर करनेवाला ब्रह्म - निर्वाण प्राप्त होता है । परन्तु बुद्धि की पूर्ण स्थिरता समाधि में होती है ( गी ० अ ० २ , श्लोक ५३ ) । और आत्मज्ञान भी समाधि में ही पूर्ण होता है । जिसकी बुद्धि समाधि में दृढ़ एवं स्थिर हो जाती है , उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं । ऐसी अवस्था में समाधि - साधक को ईश्वर पहचानने की शक्ति प्राप्त हो जाती है । गीता अ ० २ के वर्णनानुसार इस साधनविशेष के द्वारा समाधि की सिद्धि का लाभ करना अत्यावश्यक हो जाता है । 

     सांसारिक कर्तव्यों का अनासक्त भाव से पूर्णरूपेण पालन करते हुए साधन - विशेष द्वारा समाधि की सिद्धि का लाभ हो , श्रीमद्भगवद्गीता इसी को उत्तम बतलाती है । इसीलिए तीसरे , चौथे और पाँचवें अध्यायों में कर्मयोग , ज्ञानकर्मसंन्यासयोग और कर्मसंन्यासयोग का वर्णन करके कथित समाधि के विशेष और सरलतम साधन का वर्णन छठे अध्याय में किया गया है । 

     समाधि प्राप्ति करने के विशेष साधन को ही ध्यानयोग कहते हैं । इसके लिए कर्मों का त्याग न करके मानस ध्यान में  लगे हुए , कर्मों को करते रहना चाहिए । उनको अहं और फल - आश छोड़कर गृही रहते हुए [ अर्थात् गृहस्थी में ही विरक्त ( संन्यासी ) बन कर्मयोगी होकर ] ध्यानयोग का अभ्यास करना चाहिए । इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण का यही उपदेश है । 

     योगी बनने के लिए कर्म ( कर्मफलों में अनासक्त रहकर कर्म करना तथा एकान्त में केवल ध्यानयोग करने का कर्म करना - ये दोनों ही कर्म हैं ) साधन है । और योग में सिद्धि - लाभ होने पर शम अर्थात् मनोनिग्रह , कर्म का साधन बन जाता है । शम की सिद्धि के बिना कर्मों और विषयों में अनासक्त होना असम्भव है । जब यह आसक्ति और सब संकल्प छूट जाते हैं , तब अभ्यासी योगारूढ़ ( योग पर चढ़ा हुआ ) कहलाता है । यह असाध्य और असम्भव नहीं है । प्रतिदिन के बाह्य कर्तव्यों के लिए जैसे समय बाँट - बाँटकर उनका सम्पादन करना चाहिए , उसी तरह नित्य एकान्त में बैठकर ध्यानयोग का भी अभ्यास करने के लिए अपने समय का भाग होना चाहिए । 

     मनुष्य अपना उद्धार आप करे । अपनी अधोगति न करे । जिसने अपने मन को जीता है , वह अपना मित्र और जिसने नहीं जीता है , वह अपना शत्रु है । जो मन को जीतकर पूर्ण रूपेण शांत हो गया है , वह ठण्ढ - गर्मी , सुख - दुःख और मानापमान में समान रहता है । इन्द्रियों को जीतनेवाला , ज्ञान और विज्ञान से तृप्त , कूटस्थ अर्थात् मूल ( परमात्म - पद ) में पहुँचा हुआ , सोने और मिट्टी को तुल्य जाननेवाला और परमात्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान से युक्त योगी कहलाता है । जो सुहृद , शत्रु , मित्र आदि सब प्रकार के लोगों में समान भाव रखनेवाला है , वह श्रेष्ठ पुरुष है । 

     उपर्युक्त योग्यता को प्राप्त करने के लिए चाहिए कि योगाभ्यासी एकान्त में अकेला रहकर विचार - द्वारा अपने मन पर काबू रखते हुए तथा संग्रहों को त्यागते हुए सदा ( नित्य नियत समयों पर ) योगाभ्यास करें । ' सदा ' ( सतत ) शब्द से ऐसा समझना कि दूसरा कोई काम न करते हुए , दिन - रात के सम्पूर्ण समय ( चौबीसो घण्टे ) जीवन - भर योगाभ्यास करें , ऐसा हो सकना असम्भव है । शौचादि नित्य कर्म , भोजन , शयन , जीविकोपार्जन तथा अन्य कर्तव्यों के किए बिना कोई कदापि नहीं रह सकता है । इन कर्मों में जैसे समय बाँट - बाँटकर नित्य लगाना होगा , उसी तरह नितप्रति योगाभ्यास के लिए भी समय नियत रखकर अभ्यास करना होगा । 

     जो ऐसा कहते हैं- ' एकान्त में अकेला रहकर ध्यानाभ्यास में समय लगाने की आवश्यकता नहीं है , बल्कि गीता में बतायी हुई विधियों से मन पर संयम रखते हुए तथा कर्तव्यों का पालन करते हुए केवल कर्मयोग के ही अभ्यास से स्थितप्रज्ञता तथा परम सिद्धि मिल जाएगी । ' और यह भी कहते हैं - मेरा उनसे निवेदन है कि उपर्युक्त उक्ति चाहे जिस किसी भी महापुरुष की हो , वे अवश्य ही भूल में हैं । यदि वे समाधि , स्थित - प्रज्ञता तथा सिद्धावस्था के विषय में जानकार हैं , तो अपने किसी विशेष कार्य सम्पादन के हेतु देश में भ्रांतिपूर्ण विचार फैला रहे हैं और देशहितैषी कहलाते हुए भी देश की आध्यात्मिक हानि कर रहे हैं । अन्यथा वे अवश्य ही समाधि , स्थित - प्रज्ञता तथा सिद्धावस्था के विषय के पूर्ण ज्ञाता नहीं है । 

     भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय में ही कह दिया है- ' समाधि में स्थितप्रज्ञता होगी , तब समत्व प्राप्त होगा ( श्लोक ५३ ) । ' स्थितप्रज्ञता और समत्व के बिना अन्यान्य विधियों से कर्मयोग में सिद्धिलाभ नहीं हो सकता है । इसलिए इस अध्याय के श्लोक ३ के अनुसार योगी बनने में कर्म ( अर्थात्  ध्यानाभ्यास - रूप कर्म और बाह्य कर्तव्यों के विधिवत् सम्पादन का कर्म ) उसका साधन और योगी बन चुकने पर ( अर्थात् योग की पूरी सिद्धि ) अथवा सिद्धावस्था प्राप्त होने पर शम ( मन पर पूर्ण अधिकार ) कर्म का साधन बन जाता है । और इसकी सिद्धि के हेतु श्लोक १० में एकान्त में अकेला रहकर योगाभ्यास करने को कहा गया है ।
     स्वयं भगवान श्रीकृष्ण एकान्त में अकेला रहकर योगाभ्यास करते थे । 
ब्राह्म मुहूर्ते उत्थाय वायुपस्पुश्य माधवः । दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ॥ ( श्रीमद्भागवत , स्कन्ध १० , अध्याय १० , श्लोक ४ ) 
अर्थ - भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ - मुँह धोकर अपने मायातीत आत्म - स्वरूप का ध्यान करने लगते । उस समय उनका रोम - रोम आनन्द से खिल उठता था।।४ ॥ 

     भगवान श्रीकृष्ण गीता - ज्ञान के आदिगुरु हैं । उन्होंने केवल पाण्डव अर्जुन को ही इस ज्ञान की शिक्षा दी थी , सो नहीं , अर्जुन से बहुत पूर्व उन्होंने अपने इस जन्म के पूर्व ही यह शिक्षा पहले - पहल विवस्वान ( सूर्य ) को दी थी ( अध्याय ४ , श्लोक १ ) । अध्याय ३ के २० , २१ , २२ , २३ और २४ श्लोकों से विदित होता है कि श्रीभगवान कहते हैं - ' उत्तम पुरुष के आचरण का अनुकरण लोग करते हैं और उत्तम पुरुष जिसे प्रमाण बनाते हैं , उसका लोग अनुसरण करते हैं । ' भगवान श्रीकृष्ण को यद्यपि तीनों लोकों में न कुछ करना था और न उन्हें कुछ भी अप्राप्त ही था , यद्यपि वे उपर्युक्त कारणों से कर्तव्य कर्मों में कुछ भी रुके बिना लगे रहते थे , ताकि लोग उनका अनुकरण और अनुसरण करें , नहीं तो सारे लोक नष्ट हो जाएँगे और वे स्वयं अव्यवस्था के कर्ता बनेंगे तथा लोकों का नाश करनेवाले होंगे । भगवान श्रीकृष्ण ध्यान - योगाभ्यास नित्य प्रति उपर्युक्त कारण से ही करते थे , नहीं तो उनको स्वयं अपने लिए इसकी कुछ आवश्यकता नहीं थी । 

     गीता में इसकी विधि भी इस अध्याय में है ही; तब जो इसकी अवहेलना करते हैं और श्रीभगवान के विचार का उल्लंघन करते हैं , चाहे वे कोई भी हों , उनका विचार माननेयोग्य नहीं है । लोकमान्य बालगंगाधर तिलक और महात्मा गाँधी के सदृश सफल घोर कर्मयोगियों को भी एकान्त में ध्यानाभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक जान पड़ता था । तिलक महोदयजी अपने ' गीता - रहस्य ' में कहते हैं- ' परमेश्वर - स्वरूप की इस प्रकार पूरी पहचान हो जावे कि एक ही परब्रह्म सब प्राणियों में व्याप्त है और उसी भाव से संकट के समय भी पूरी समता से बर्ताव करने का अचल स्वभाव हो जावे ; परन्तु इसके लिए ( सदैव से हमारे समान चार अक्षरों का कुछ ज्ञान होना ही बस नहीं है । ) अनेक पीढ़ियों के संस्कार की , इन्द्रियनिग्रह की , दीर्घोद्योग की तथा ध्यान और उपासना की सहायता अत्यन्त आवश्यक है ( अध्यात्म - प्रकरण , पृ ० २४७ ) । 

     ' महात्मा गाँधी ' अनासक्ति - योग ' , अध्याय २ , श्लोक ६ ९ की टिप्पणी में कहते हैं- ' भोगी मनुष्य रात के बारह - एक बजे तक नाच , रंग , खान - पान आदि में अपना समय बिताते हैं और फिर सबेरे सात - आठ बजे तक सोते हैं । संयमी रात के सात - आठ बजे सोकर मध्य रात्रि में उठकर ईश्वर का ध्यान करते हैं । साथ ही भोगी संसार का प्रपंच बढ़ाता है और ईश्वर को भूलता है । उधर संयमी सांसारिक प्रपंचों से अनजान रहता है और ईश्वर का साक्षात्कार करता है । " इन उद्धरणों से यही सिद्ध है कि चाहे कोई कैसा भी कर्मयोगी हो , उसको ध्यानाभ्यास नित्य नियमित रूप से सतत , जीवन - भर अवश्य करना चाहिये ।.... क्रमशः।।


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प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि What is knowledge, action and renunciation?  What is the history of knowledge work?  What is the cycle of birth and death?  Who can get rid of the cycle of birth and death?  How do gurus like Lord Shri Krishna meet?  What is hearing, contemplation, nididhyasana and experience knowledge?  What is the true knowledge of God who is redeemed from karma?  Special discussion of Karma and Akramd। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य  देखें।



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G06 (क) श्रीमद्भागवत गीता में ध्यान योग संबंधी भ्रांतियां और उनका निराकरण ।। Bhagavad Gita- 6th Chapter G06 (क) श्रीमद्भागवत गीता में ध्यान योग संबंधी भ्रांतियां और उनका निराकरण ।। Bhagavad Gita- 6th Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 1/22/2020 Rating: 5

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