श्री-गीता-योग-प्रकाश / 04 (क)
प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।
इस लेख में बताया गया है ज्ञान, कर्म और सन्यास-योग क्या है? ज्ञान कर्म का इतिहास क्या है? जन्म - मरण का चक्र क्या है? जन्म-मृत्यु के चक्र से कौन छूट सकता है? भगवान श्री कृष्ण जैसे गुरु कैसे मिलते हैं? श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान क्या है? कर्म बंधन से छुड़ाने वाला भगवान का सही ज्ञान क्या है? कर्म और अकर्म की विशेष चर्चा इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- भगवद् गीता किस काल से विद्यमान है, गीता में क्या लिखा है, ज्ञान , कर्म ज्ञान , कर्म और सन्यास - योग क्या है, ज्ञान कर्म, भक्ति ज्ञान, कर्म-ज्ञान, कर्म उपासना, ज्ञान, कर्म योग ज्ञान और कर्म, कर्मकांड ज्ञान, कर्म ज्ञान, भक्ति ज्ञान कहानी, ज्ञान और भक्ति में अंतर, कर्म ज्ञान, भक्ति और ज्ञान, ज्ञान योग, शिव भक्ति योग, गुरु भक्ति योग, गीता ज्ञान योग, ज्ञान योग साधना, ज्ञान योग के प्रकार, कर्म करना चाहिए, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।
श्रीगीता-योग-प्रकाश के अध्याय 3 को पढ़ने के लिए यहां दवाएं।
इस लेख में बताया गया है ज्ञान, कर्म और सन्यास-योग क्या है? ज्ञान कर्म का इतिहास क्या है? जन्म - मरण का चक्र क्या है? जन्म-मृत्यु के चक्र से कौन छूट सकता है? भगवान श्री कृष्ण जैसे गुरु कैसे मिलते हैं? श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान क्या है? कर्म बंधन से छुड़ाने वाला भगवान का सही ज्ञान क्या है? कर्म और अकर्म की विशेष चर्चा इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- भगवद् गीता किस काल से विद्यमान है, गीता में क्या लिखा है, ज्ञान , कर्म ज्ञान , कर्म और सन्यास - योग क्या है, ज्ञान कर्म, भक्ति ज्ञान, कर्म-ज्ञान, कर्म उपासना, ज्ञान, कर्म योग ज्ञान और कर्म, कर्मकांड ज्ञान, कर्म ज्ञान, भक्ति ज्ञान कहानी, ज्ञान और भक्ति में अंतर, कर्म ज्ञान, भक्ति और ज्ञान, ज्ञान योग, शिव भक्ति योग, गुरु भक्ति योग, गीता ज्ञान योग, ज्ञान योग साधना, ज्ञान योग के प्रकार, कर्म करना चाहिए, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं gyaan, karm aur sanyaas-yog kya hai? gyaan karm ka itihaas kya hai? janm - maran ka chakr kya hai? janm-mrtyu ke chakr se kaun chhoot sakata hai? bhagavaan shree krshn jaise guru kaise milate hain? shravan, manan, nididhyaasan aur anubhav gyaan kya hai? karm bandhan se chhudaane vaala bhagavaan ka sahee gyaan kya hai? karm aur akarm kee vishesh charcha आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-
अध्याय ४
अथ ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
इस अध्याय में ज्ञान , कर्म और संन्यास - योग का वर्णन किया गया है । ज्ञान , कर्म और संन्यास वा त्याग - तीनों से युक्त रहते हुए , संसार में जीवन बिताने का उपदेश इस अध्याय में दिया गया है ।
यह उपदेश बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा था ; जैसे भगवान ने पहले सूर्य को , सूर्य ने अपने पुत्र मनु को और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को यह उपदेश दिया था । इस भाँति राजर्षियों की परम्परा में यह उपदेश बहुत काल तक चलता रहा ; परन्तु दीर्घकाल की प्रबलता से यह नष्ट हो गया ।
भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डव* अर्जुन को यह उपदेश देकर फिर से इसका प्रचार किया ।
इस उपदेश का सारांश इस प्रकार है - जीवों को अनेक बार जन्म - मरण के चक्र में घुमते रहना पड़ता है । साधारण लोगों को बीते हुए अनेकानेक जन्मों का स्मरण नहीं रहता है ; परन्तु भगवान श्रीकृष्णवत् महायोगेश्वर को यह स्मरण रहता है । साधारण लोग मायावश होकर जन्म लेते हैं ; परन्तु महायोगेश्वर माया को स्ववश में रखते हुए , संसार के कर्मों का संपादन करने के लिए जन्म - धारण करते हैं । भगवान श्रीकृष्ण ऐसे ही थे । ऐसे महापुरुष पुरुषोत्तम अपने आत्मस्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान रखने वाले , अपने को अजन्मा और अविनाशी प्रत्यक्ष रूप में जानते हैं । माया को स्ववश में रखते हुए , जन्म - धारण कर संसार के कार्यों का संपादन करने को दिव्य जन्म और दिव्य कर्म जानना चाहिए । ऐसे जन्म कर्म के जाननेवाले का पुनर्जन्म नहीं होता है । ( क्योंकि इसका पूर्ण ज्ञान आत्मज्ञान के बिना नहीं होता । केवल बौद्धिक ज्ञान पूर्ण नहीं होता । श्रवण , मनन निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान के इन चारो अंगों में पूर्ण होने को ही पूर्ण ज्ञान कहते हैं । समाधि जन्य अनुभव ज्ञान हुए बिना , आत्मज्ञान नहीं होता है । )
श्रीमद्भगवद्गीता , अ ० ७ , श्लोक २४ में व्यक्त अथवा इन्द्रियगम्य रूप को ही केवल जाननेवाले और इन्द्रियातीत रूप को नहीं पहचाननेवाले को मूढ़ात्मा कहा गया है । मूढ़ात्मा को भगवान के दिव्य जन्म और कर्म का ज्ञान हो और उसको पुनर्जन्म से मुक्ति मिले , कैसे संभव है ? विषयानुरक्ति , भय और क्रोध से रहित भगवद्भक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर भगवान में लीन हो जाते हैं । जब कोई श्रवण , मनन , निदिध्यासन और अनुभव ; ज्ञान के इन चारो अंगों में निष्णात और परिपक्व होता है । तभी वह ज्ञान रूप तप से पवित्र होता है । चाहे मोक्षार्थी बनकर , चाहे इस लोक और स्वर्ग आदि परलोक का कामार्थी बन , जो जिस आकांक्षा से भगवान का आश्रय लेते हैं , वे वैसे ही फल भगवान से प्राप्त करते हैं । देवताओं की आराधना से किसी को मोक्ष नहीं मिलता है । गुणों और कर्मों के विभागानुसार चार वर्णों की रचना ईश्वरकृत है , फिर भी ईश्वर अकर्ता ही रहता है । ईश्वर भगवान कृष्ण को कर्म स्पर्श नहीं करता है । ** जो ईश्वर को भली भाँति जानता है , वह कर्म - बन्धन से नहीं बँधता है ।
भगवान के इन्द्रियातीत आत्मस्वरुप के प्रत्यक्ष ज्ञान से विहीन , उनके केवल इन्द्रिय - गम्य रूप की प्रत्यक्षता प्राप्त भक्त को उपर्युक्त प्रकार की अभिज्ञता ( जानकारी ) नहीं होती है और न वह कर्म - बन्धन से छूट सकता है । भगवत्स्वरूप को अच्छे प्रकार से जाननेवालों ने कर्तव्य कर्म किए हैं । सब लोगों को उसी प्रकार कर्म करना चाहिए ।
कर्म और अकर्म क्या हैं , इस विषय में बुद्धिमान लोग भी मोह में पड़े हैं ।
' कर्म ' , ' विकर्म ' ( निषिद्ध कर्म )∆ और ' अकर्म ' का भेद जानना चाहिए । कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखना इस भाँति कर्म में गूढ़ता है । इस गूढता - भरे कर्म के करनेवाले को बुद्धिमान , योगी और समस्त कर्तव्यों का करनेवाला जानना चाहिए । पूर्ण आत्म - ज्ञान - प्राप्त महापुरुष योगेश्वर कर्म में अकर्म रहते हैं ।..... क्रमशः।।
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* राजा पाण्डु के पुत्र होने के कारण अर्जुन पाण्डव कहलाते थे ; किन्तु स्वयं पाण्डु भी कारण ही थे ।
** यः स नारायणो नाम देवदेवः सनातनः । तस्यांशो वासुदेवस्तु कर्मणाऽन्ते विवेश ह ॥ अर्थ - जो देवताओं के भी देवता सनातन नारायण हैं , उनके अंश - रूप वासुदेवजी कर्म के अंत होने पर उन्हीं में प्रवेश कर गये ।
यह श्लोक विदित करता है कि भगवान श्रीकृष्ण को भी मानव - शरीर में किये कर्मों का फल स्वर्ग में भोगना पड़ा था । कर्मों का स्पर्श नहीं होता है और फिर स्वर्ग में जा कर्मफल - भोग के अंत होने तक वहाँ रहने के बाद अपने अंशी में जा मिलता है - ये दोनों बातें ' महाभारत ' में ही लिखी है । यह बात भी प्रसिद्ध है कि भगवान श्रीकृष्ण को एक व्या भ्रमवश उनके चरण में तीर मारा था , जो उनके इस लोक से सिधार जाने का कारण हुआ । मानो स्वयं श्रीकृष्ण भगवान ने उस तीर को इस लोक के त्यागने का कारण बना लिया था । उस तीर में लगा हुआ लोहा वही था जिससे यदुवंश का नाश होना था , मुनियों ने ऐसा शाप दिया था । मानो इस शाप को भी भगवान ने स्वीकार किया था । यह इसलिए कि त्रेतायुग के रामावतार में भगवान ने वानरराज बालिका वध छिपकर किया था । उसी कर्मों का वह प्रतिफल था । तुलसीकृत रामायण में तो श्रीलक्ष्मीजी ने निषाद से श्रीराम - सीता के वनवास के कष्ट का कारण यह बताया गया है
काहु न कोउ सुख - दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सुनु भ्राता ॥
इससे जानने में आता है कि कर्मफल श्रीभगवान भी भोगते हैं । बात यह है कि जैसे सौर - जगत में रहनेवालों पर सूर्य का प्रभाव अनिवार्य रूप से पड़ता रहेगा या कि जैसे किसी राज्य में रहनेवालों पर उस राज्य का विधान ( कानून ) लागू रहेगा , उसी भाँति कर्म - मण्डल में रहनेवाले पर कर्म के फल का मिलना अनिवार्य रूप से होता रहेगा । इस नियम को स्वयं भगवान भी नहीं तोड़ते हैं । इस नरलोक से लेकर देहधारियों के जितने भी स्वर्गाधिक उत्तमोत्तम लोक हैं , सब - के - सब कर्म - भवन वा कर्म - मण्डल के अन्तर्गत है । इनमें से किसी में जाओं , कर्मफल का भोग अनिवार्य रूप से होता रहेगा ।
हाँ , यदि देहधारियों के लोकों के ऊपर ब्रह्म - निर्वाण - पद में पहुंचो , तो वहाँ अवश्य ही कर्मफल के भोग से सम्पूर्ण रूपेण रहित हो जाओगे । कर्मयोग के सहित परमात्मा - भक्ति के साधन से ही उपर्युक्त सर्वोच्य पद की प्राप्ति होगी - अन्यथा नहीं । कर्म - योग और परमात्मा - भक्ति में ज्ञान , संन्यास , विषय - भोग की लालसा का त्याग , कर्मफल का त्याग , सफलता और विफलता में तटस्थता और आत्म - ज्ञान ओत - प्रोत रहते हैं ।
∆ विद्वानों एवं साधकों ने भिन्न - भिन्न प्रकार से ' विकर्म ' का अर्थ किया है ; यथा
' कर्मणः शास्त्रविहितस्य हि यस्माद् अपि अस्ति बोद्धव्यं बोद्धव्यं च अस्ति एवं विकर्मणः प्रतिषिद्धस्य , तथा अकर्मणः च तूष्णींभावस्य बोद्धव्यम् अस्ति इति त्रिषु अपि अध्याहारः कर्तव्यः । '
अर्थ - कर्म का - शास्त्रविहित कर्म का भी रहस्य जानना चाहिए ; विकर्म का - शास्त्रवर्जित का भी रहस्य जानना चाहिए और अकर्म का - चुपचाप बैठे रहने का भी रहस्य समझना चाहिए । , ( शांकर भाष्य का भाषानुवाद )
' विकर्मणि च , नित्य नैमित्तिक तथा काम्य रूपेण तत्साधन द्रव्यार्ज - नाद्या कारेण च विविधताम् आपन्नं कर्म , विकर्म । '
अर्थ - नित्य , नैमित्तिक और काम्य रूप से तथा उसके साधन द्रव्योपार्जनादि रूप से विविध भावों को प्राप्त कर्म , विकर्म कहलाते ( श्रीरामानुज - भाव्य । अनुवादक - हरिकृष्ण दास गोयनका )
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के अनुसार - ' निषिद्ध कर्म वा तामस कर्म , मोह और अज्ञान से हुआ करते हैं , इसलिए उन्हें विकर्म कहते हैं । मीमांसकों को यज्ञ - याग आदि काम्य कर्म इष्ट हैं , इसलिए उन्हें इसके अतिरिक्त और सभी कर्म ' विकर्म ' जंचते हैं । अपने माँ - बाप को कोई मारता - पीटता हो , तो उसको न रोककर चुप्पी मारकर बैठा रहना , उस समय व्यावाहारिक दृष्टि से अकर्म अर्थात् कर्मशून्यता हो तो भी , कर्म ही - अधिक या कहें ; विकर्म है । और कर्म - विपाक की दृष्टि से उसका अशुभ परिणाम हमें भोगना ही पड़ेगा । ' विकर्म विपरीत कर्म । गीता - रहस्य , पृ ०६७५ और ६७७।
' महात्मा गाँधीजी महाराज के अनुसार , ' विकर्म का अर्थ निषिद्ध कर्म है । ' -अनासक्तियोग ( श्लोक - सहित गीता के पृष्ठ ७ ९ )
शब्दकोष में ' वि ' का अर्थ इस भाँति है - यह उपसर्ग है , जो विशेष , निषेध तथा वैरूप्य ( विरूपता , कदर्य्यता , क्षुद्रता ) के अर्थ में शब्दों के पहले लगाया जाता है । -और विकर्म का अर्थ ' दुराचार ' है । श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ श्लोक १७ में कर्म , विकर्म और अकर्म को जानने के लिए कहा गया है । वहाँ प्रसंगानुसार ' विकर्म ' का जो अर्थ श्रीशंकराचार्यजी महाराज , श्रीरामानुजाचार्यजी महाराज , श्री बालगंगाधर तिलकजी महाराज और श्रीमहात्मा गाँधीजी महाराज ने बताया है , मुझे वही ठीक जंचता है ; क्योंकि कर्म - ज्ञान के लिए सर्वप्रथम विधिकर्म और निषिद्धकर्म ( दोनों ही ) का ज्ञान होना आवश्यक है ।.... क्रमशः।।
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प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि What is knowledge, action and renunciation? What is the history of knowledge work? What is the cycle of birth and death? Who can get rid of the cycle of birth and death? How do gurus like Lord Shri Krishna meet? What is hearing, contemplation, nididhyasana and experience knowledge? What is the true knowledge of God who is redeemed from karma? Special discussion of Karma and Akramd। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य देखें।
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G04 (क) गीता ज्ञानानुसार ज्ञान, कर्म और सन्यास-योग क्या है ।। Bhagavad Gita- 4rth Chapter
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
1/22/2020
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कोई टिप्पणी नहीं:
प्रभु-प्रेमी पाठको ! ईश्वर प्राप्ति के संबंध में ही चर्चा करते हुए कुछ टिप्पणी भेजें। श्रीमद्भगवद्गीता पर बहुत सारी भ्रांतियां हैं ।उन सभी पर चर्चा किया जा सकता है।
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