G04 (ख) देव यज्ञ में यज्ञ के कितने रूप होते हैं ।। Shreemad Bhagavad Gita- 4rth Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G04 (ख) देव यज्ञ में यज्ञ के कितने रूप होते हैं ।। Shreemad Bhagavad Gita- 4rth Chapter

श्रीगीता-योग-प्रकाश / 04 (ख)

प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाशइसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।

इस लेख में बताया गया है  कर्म करते हुए अकर्मी कौन हो सकता है? विविध प्रकार के यज्ञों में देव पूजन रूप यज्ञ की विशेषता क्या है? गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज विक्रम किसे कहते हैं? ब्रह्म निर्वाण या मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकते हैं? स्वधर्माचरण - रूपी कर्म क्या है? कर्म का लेप कैसे नहीं लगता है?  इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- यज्ञ का अर्थ एवं परिभाषा, यज्ञ कितने होते है, यज्ञ करने की विधि, यज्ञ के लाभ,यज्ञ के नियम,  देव यज्ञ में यज्ञ के कितने रूप होते हैं, वैदिक यज्ञ, विष्णु यज्ञ के लाभ, यज्ञ शब्द की उत्पत्ति, यज्ञ के लेखक कौन है, यज्ञ की उत्पत्ति, देव यज्ञ में अग्नि के कितने रूप हो जाते हैं,  इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।

श्रीगीता-योग-प्रकाश के अध्याय 4 (क) को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं 


यज्ञ के विविध प्रकारों पर चिंतन करते हुए सदगुरुदेव महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

How many forms of Yagya are there in Dev Yajna

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं Who can be impure while doing deeds?  What is the specialty of Yagya in the form of Dev Pujan in various types of Yagyas?  Who is Goswami Tulsidas Ji Maharaj called Vikram?  How can one attain Brahma Nirvana or Moksha?  Self-righteousness - What is karma like?  How do you not apply karma? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-


अध्याय ४ 

अथ ज्ञानकर्मसंन्यासयोग 

     .... पूर्ण आत्म - ज्ञान - प्राप्त महापुरुष योगेश्वर कर्म में अकर्म रहते हैं । परन्तु इस ज्ञान में जो अपूर्ण है , वह अकर्म का ढोंग रखता है और अकर्म में कर्म का कर्ता कहलाता है । और वह भी अकर्म में ढोंगी है , जो बाहर से कर्मत्यागी है , परन्तु मन से विषयों में रमण करता रहता है । पूर्ण आत्म - ज्ञानी ही पण्डित कहलाता है । वह सब आरम्भ , कामना और संकल्प से रहित रहता है । उसके सब कर्म ज्ञानाग्नि से भस्म हो जाते हैं । वह कर्मफल - त्यागी , सदा सन्तुष्ट और किसी आश्रय की लालसा से विहीन होता है । वह कर्तव्य कर्म में प्रवृत रहकर भी अकर्मी रहता है । ' कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें । ' ( तुलसी - कृत रामायण ) 
ऐसे पुरूष का मन उसके वश में रहता है । वह द्वन्द्व और द्वेष से रहित रहता है और सफलता तथा विफलता में तटस्थ ( विकार - विहीन ) रहता है । वह यज्ञार्थ अर्थात् परहित - हेतु कर्म करता है । वह सब कर्मों को ब्रह्ममय देखता है । होम , होम की सब सामग्रियाँ , हवि , अग्नि , होम करनेवाला ; ये सब - के - सब ब्रह्म हैं । ( ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान बिना अपरोक्ष ब्रह्म - ज्ञान के नहीं होता है । केवल श्रवण , मनन और भावनावाले को यह ज्ञान कदापि नहीं हो सकता । ) इस प्रकार कर्मों के साथ ब्रह्म का मिलाप देखनेवाला ब्रह्म को प्राप्त करता है ।

     विविध प्रकार के यज्ञ करनेवाले होते हैं । कोई देव - पूजन - रूप यज्ञ करते हैं । ( यह यज्ञ तब पूर्ण होता है , जब पूज्य देव के आत्मस्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन पूजक को हो जाता है ) कोई इन्द्रियों का संयमरूप यज्ञ करते हैं । ( यह यज्ञ इन्द्रियों की चेतन - धारों को अन्तर्मुखी करके केन्द्र में केन्द्रित करने से होता है । ) कोई शब्दादि विषयों को इन्द्रियाग्नि में होम कर यज्ञ करते हैं । ( इन्द्रियों की चेतनधारों को अन्तर्मुख करके केन्द्र में केन्द्रित ) ऐसा करने से वहाँ अन्तर्ज्योति उदित होती है तथा उस ज्योतिमण्डल में अनहद ध्वनि अनवरत रूप से ध्वनित होती रहती है , मानो उस प्रकाशाग्नि में शब्द की आहुति पडती है । और दूसरे सब विषय भी उस प्रकाश - मण्डल के अभ्यन्तर उदित हो - होकर उसमें लीन होते रहते हैं । मानो सब सूक्ष्म विषयों की आहुतियाँ उस प्रकाशाग्नि में पड़कर भस्म होती हैं ।... क्रमशः।।


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....गोस्वामी तुलसीदाजी महाराज भी यही कहते हैं 

' विधि निषेध मय कलिमल हरनी । करम कथा रविनन्दिनि बरनी ॥ ' ( रामचरितमानस )

केवल विधि ( वैध ) कर्म का ही ज्ञान हो , निषिद्ध ( अवैध ) कर्म का ज्ञान नहीं हो और ' विकर्म ' का अर्थ विशेष कर्म करके निषिद्ध कर्म के जानने और बताने की आवश्यकता नहीं समझी जाय , तो कर्म का ज्ञान अवश्य अपूर्ण रहेगा । ऐसी अवस्था में यदि कोई निषिद्ध कर्मों ( चोरी - डकैती आदि ) को ही पूरा मन लगाकर करे तो ये कर्म उक्त कथनानुसार विकर्म ( विशेष कर्म ) हो जाएंगे और ऐसे विकर्म ( विशेष कर्म ) अवश्य ही महा अनिष्टकर होंगे । यदि कहा जाय कि कर्म में अकर्म ( अर्थात् अहंकार और फल - आश त्याग कर कर्म करना ) विधि - कर्म है तथा अकर्म में कर्म ( अर्थात बाहर से कर्म - शून्यता और अन्तर में मानस कर्मों को करना ) निषिद्ध कर्म है , तो जानना चाहिए कि बाहर से कर्म - शून्यता और अन्तर में सद्विचार तथा ब्रह्म - चिन्तन में संलग्नता , अकर्म में कर्म होते हुए भी , निषिद्ध कर्म कदापि नहीं है । बाहर में परोपकारादि शुभ कार्य और निज कर्तव्य करने का कर्म और अन्तर में ईश - स्मरण ( यथा - ' मामनुस्मर युद्ध्य च ' , गीता अ ०८ , श्लोक ७ ) -यद्यपि यहाँ बाहरी कर्म से मन का मेल पूरा - पूरा ठीक मिला नहीं है ( अर्थात् बाहरी कर्म के साथ " विकर्म ' का अर्थ विशेष कर्म करनेवाले के अनुकूल नहीं है ) , तो भी ऐसे कर्म को निषिद्ध कर्म नहीं कह सकते । इस हेतु भगवद्गीता के उक्त श्लोक में जो कर्म - ज्ञान का आदेश है , उसमें निषिद्ध कर्म को ही विकर्म कहा गया है , ऐसा जान पड़ता है ।

     विकर्मी ( निषिद्ध कर्म का कर्मी ) होने से बचा रहकर , कर्मी में अकर्मी ( कर्तव्य कर्म बाह्य इन्द्रियों से करते हुए मन से उस कर्म के करने का अहंकार और कर्म - फल का त्याग ) रहकर और अकर्मी में कर्मी ( बाहर से अकर्मी और मन से कर्मी ) रहने का दम्भ छोड़कर , कर्मयोग के सहित परमात्म - भक्ति का साधन ठीक बनेगा । 

     इस अध्याय में बताये गये यज्ञों द्वारा यह साधन क्रमशः पूर्णता की ओर चलते - चलते समाप्त हो जायेगा ।

     केवल बुद्धि शक्ति से ही मोक्ष का यह साधन समाप्त होने योग्य नहीं है । यह ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करने वा परम मोक्ष वा प्रत्यक्ष - अपरोक्ष आत्म - ज्ञान जीते - जी पा लेने पर ही कोई पूर्ण कर्मयोगी वा संन्यासी वा स्थितप्रज्ञ वा समत्व - प्राप्त पुरूष वा सन्त कहलाने का अधिकारी हो सकता है । 

     जो कर्म में अकर्मी होने का और विकर्म के त्याग का प्रयास आरम्भ करके उसमें आगे बढ़ता जाता है , वह सांसारिक भोगों से अनासक्त होता जाता है । उससे उपर्युक्त साधन बनते - बनते पूर्णरूप से बन जाता है और अनासक्त रहने के कारण , संसार में भी वह शान्ति से रह सकता है । 

     अध्याय २ , श्लोक ५३ में तो स्पष्ट ही कहा गया है कि समाधि में बुद्धि ( प्रज्ञा ) जब स्थिर होगी , तब समत्व प्राप्त होगा । जब जिसकी बुद्धि अर्थात् प्रज्ञा स्थिर होती है , तब वह स्थितप्रज्ञ होता है और तभी वह समत्व - प्राप्त पुरूष होता है । चाहे स्थितप्रज्ञ कहो वा समत्व - प्राप्त पुरूष कहो , एक ही बात है । गीता के अनुसार ऐसा ही पुरूष पूर्ण कर्मयोगी होता है । परन्तु गीता कहती है कि समाधि में ही यह दशा प्राप्त होती है । तब समाधि प्राप्त करने का साधन छोड़कर केवल बुद्धिबल से ही इस दशा में आने का प्रयास गीता के प्रतिकूल ही नहीं , वरन् अयुक्त और असम्भव भी है । समाधि - साध न का तिरस्कार कर ' केवल बुद्धि - बल के प्रयास से ही समत्व वा स्थितप्रज्ञता को प्राप्त कर लेना गीता के अनुकूल है ' - ऐसा कहना मिथ्यावाद के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है ? हाँ , ऐसा कहना कि बुद्धि - बल से ओर समाधि के साधन से - दोनों से समत्व प्राप्त करने का गीता का आदेश है , यह पूर्णरूप से गीता - ज्ञान के अनुकूल मानना पड़ेगा । विकर्मी होने से बचते हुए , कर्म में अकर्मी रहने के भाव को बुद्धिबल से बढ़ाते रहो और साथ - ही - साथ समाधि का भी अभ्यास करते रहो , तो अन्त में पूर्ण कर्मयोगी बनकर ब्रह्मनिर्वाण जीते - जी प्राप्त कर लोगे । श्रीगीताजी का यही सच्चा उपदेश है । 

     कोई यह कहते हैं कि ' वि ' का अर्थ जब विशेष है तो ' विकर्म ' का अर्थ विशेष कर्म होगा ही और विकर्म के लिए निम्नोक्त प्रकार के अर्थों को जानना चाहिए । ( १ ) ' कर्म का अर्थ है स्वधर्माचरण की बाहरी स्थूल किया । इस बाहरी किया में चित्त को लगाना ही विकर्म है । स्वधर्माचरण - रूपी कर्म करते हुए यदि मन का विकर्म उसमें नहीं जुड़ा है , तो उसे धोखा समझना चाहिए । ' ( २ ) कर्म के साथ मन का मेल होना चाहिए । इस मन को ही गीता ' विकर्म ' कहती है । ( ३ ) ' कर्म में विकर्म उड़ेलने से अकर्म होता है । कर्म में विकर्म डाल देने से वह अकर्म हो जाता है मानो कर्म को करके फिर उसे पोंछ दिया हो , ' इत्यादि । अब प्रत्येक संख्या के अर्थ पर विचार करना आवश्यक है । 

     ( १ ) ' कर्म ' का अर्थ ' स्वधर्माचरण की बाहरी स्थूल किया ' यदि कोई कहता है तो यह उसका केवल अपना अर्थ है , सबके माननेयोग्य यह अर्थ नहीं है । जिस धर्माचरण में केवल बाहरी ही कर्म , मन के मेल के बिना ही होता है , उसको आडम्बरी कर्म कहना चाहिए , न कि यथार्थ में धर्मा - चरण - कर्म । क्या धर्माचरण - कर्म की यह परिभाषा है कि बिना मन के योग के केवल बाह्य आडम्बरी कर्म करना ? कदापि नहीं । मन का योग तो धर्माचरण - कर्म में होना ही चाहिए । तभी वह धर्माचरण कह ही नहीं सकते ; क्योंकि धर्म का मूल सत्य है और बिना मन के मेल के धर्म - कर्म में सत्यता नहीं है । धर्माचरण - कर्म में मन का मेल रखना ही पड़ेगा । कोई भी कर्म बिना मन के योग के पूर्ण रूप से ठीक नहीं बन सकता । यथार्थ में जो कुछ किया जाय , उसे कर्म कहते हैं । उसमें ( क ) धर्माचरण - कर्म वह है , जिसे विधि कर्म अर्थात् धर्म - शास्त्रोक्त कर्तव्य कर्म कहते हैं और ( ख ) निषिद्ध कर्म वह है , जिसे अधर्माचरण - कर्म अर्थात् ध र्मशास्त्र से मना किया हुआ अकर्तव्य कर्म कहते हैं । इसको ही भगवद्गीता में ' विकर्म ' की संज्ञा दी गई है । क्या धर्मशास्त्र , ध माचरण - कर्म बिना मन के योग के ही करने की आज्ञा देता है ? इसका उत्तर सिवा ' नही ' के ' हाँ ' नही हो सकता । 

     ( २ ) ' कर्म के साथ मन के मेल को गीता ' विकर्म ' कहती श्रीशंकराचार्यजी महाराज , श्रीरामानुजाचार्यजी महाराज , लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी महाराज और महात्मा गाँधीजी महाराज ने गीता के अपने - अपने अर्थों में यह नहीं बतलाया है कि उपर्युक्त बात को गीता ' विकर्म ' कहती है । उन बड़े लोगों को भी ' विकर्म ' का अर्थ विशेष कर्म अवश्य ज्ञात होगा ; परन्तु गीता में जहाँ कर्म , विकर्म और अकर्म के बारे में कहा गया है , वहाँ ' विकर्म ' का अर्थ " विशेष कर्म ' कहना उनको नहीं जंचा । कर्म - प्रसंग में निषिद्ध कर्म को जानना और जनाना उन्हें आवश्यक जान पड़ा । स्वयं गीता अपने अध्याय ४ , श्लोक २० में कहती है 
त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृतोऽपि नैव किंचितकरोति सः ॥ 

अर्थ - कर्मफल की आसक्ति छोड़कर जो सदा तृप्त और निराश्रय है , ( अर्थात् जो पुरूष कर्मफल के साधन की आश्रयभूत ऐसी बुद्धि नहीं रखता कि अमुक कार्य की सिद्धि के लिए अमुक काम करता हूँ । ) कहना चा हिए कि वह कर्म करने में निमग्न रहने पर भी कुछ नहीं करता । -लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ' 

     जिसने कर्मफल का त्याग किया है , जो सदा सन्तुष्ट रहता है , जिसे किसी आश्रय की लालसा नहीं है , वह कर्म में अच्छी तरह लगा रहने पर भी कुछ नहीं करता , ऐसा कहा जा सकता है । ' -महात्मा गाँधी । ( रेखांकण इस लेखक का है ) इसके द्वारा गीता कर्म में निमग्न रहने वा अच्छी तरह लगे रहने अर्थात् अत्यन्त मनोयोग से कर्म करने कहती है ।..... क्रमशः।।


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प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि karm karate hue akarmee kaun ho sakata hai? vividh prakaar ke yagyon mein dev poojan roop yagy kee visheshata kya hai? gosvaamee tulaseedaas jee mahaaraaj vikram kise kahate hain? brahm nirvaan ya moksh kaise praapt kar sakate hain? svadharmaacharan - roopee karm kya hai? karm ka lep kaise nahin lagata hai? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य  देखें।  



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G04 (ख) देव यज्ञ में यज्ञ के कितने रूप होते हैं ।। Shreemad Bhagavad Gita- 4rth Chapter G04 (ख)  देव यज्ञ में यज्ञ के कितने रूप होते हैं ।। Shreemad Bhagavad Gita- 4rth Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/16/2020 Rating: 5

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