G09 (ख) असली राजयोग क्या है? जो जीवन बदल देता है ।। Shreemad Bhagavad Gita- 9th Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G09 (ख) असली राजयोग क्या है? जो जीवन बदल देता है ।। Shreemad Bhagavad Gita- 9th Chapter

श्रीगीता-योग-प्रकाश / 09 ख

प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात सुविख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणीी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।

इसमें बताया गया है कि दुराचारी परमात्मा को पा सकता है कि नहीं? परमात्मा की शरण में जाने से कौन-कौन मुक्त हो सकता है? भक्त क्यों बनना चाहिये? परमात्मा की स्थूल और सूक्ष्म उपासना क्यों करनी चाहिए? संतों की वाणी में स्थूल सूक्ष्म उपासना का वर्णन, स्थूल उपासना कैसे करें? सूक्ष्म भक्ति कैसे करनी चाहिए? असली राजयोग क्या है?  इसके साथ ही आप निम्नांकिचत सवालों के जवाबों में से भी कुछ-न-कुछ समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- राजयोग स्वामी विवेकानंद, राजयोग कैसे करें, राजयोग के प्रकार, योग की आठ सीढ़ियों पर चढ़कर साधक किसको प्राप्त कर सकता है, सबीज समाधि के भेद है, अष्टांग योग का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए, ज्ञान योग, राजयोग के मुख्य अंग कितने हैं, राजयोग के लक्षण, राज योग कैलकुलेटर इन कुंडली, राजयोग के प्रकार, Online कुंडली में योग, राजयोग कैसे करें, कुंडली में प्रबल राजयोग, आदि बातें। इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।

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असली राजयोग का अभ्यास करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

Understanding what is real Raja Yoga changes life

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं Can the evil person find God or not?  Who can be free from going to the shelter of God?  Why should you become a devotee?  Why should one worship God grossly and subtly?  Describe the gross subtle worship in the speech of saints, how to do gross worship?  How to do subtle devotion?  What is real Raja Yoga? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-


अध्याय 9

अथ राजविद्याराजगुह्ययोग

इस अध्याय का विषय राजविद्याराजगुह्ययोग है ।

अब आगे

.....घोर दुराचारी यदि अनन्य भाव से परमात्मा को भजे , तो उसके अच्छे संकल्प के कारण वह साधु मानने - योग्य होता है । वह शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है और सदा की शान्ति प्राप्त करता है । 

     प्रभु परमात्मा के भक्त को भवसागर की नाशवन्त गतियों से मुक्ति मिल जाती है । जब पापयोनि में जन्म लेनेवाली स्त्रियाँ और शुद्र , जो भी परमात्मा की शरण लेते हैं , वे परम गति पाते हैं , तब पुण्ययोनि में जन्म लेकर जो भगवान के भक्त होते हैं , उनके लिए कहना ही क्या ? इसलिए हे लोगो ! इस अनित्य और सुखरहित लोक में जन्म लेकर भगवान का भजन करो । उनमें मन लगाओ , उनके भक्त बनो , उनके लिए यज्ञ करो और उन्हें प्रणाम करो । इस तरह उनमें परायण रहकर आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़कर उनको पाओगे । परमात्मा के स्थूल - व्यक्त सगुण नररूप , सगुण देवरूप , अणु - से - अणु सूक्ष्म सगुण रूप , ॐ ( निर्गुण शब्द - ब्रह्म ) रूप और स्वरूप हैं । आत्मा का मिलाप या योग परमात्म - स्वरूप से होगा । मन सूक्ष्म - सगुण तक युक्ति से लग सकता है ।  मनविहीन चेतन - आत्मा जब निर्गुण शब्द - ब्रह्म ॐ में लगेगी , तब उससे आकृष्ट हो उसके लय स्थान ( परमात्म - स्वरूप ) तक पहुँचेगी । आत्मा - परमात्मा के एकीभाव

" न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछुड़ें पियारे से ।"

 और 

जौं जल में जल पैठ न निकसे , यों दुरि मिला जुलाहा । ( कबीर साहब ) -की स्थिति प्रत्यक्ष प्रगट हो जाएगी । 

     स्थूल - सगुण रूप के अतिरिक्त उनके सूक्ष्म - सगुण भाव को भी जानना और उनकी भी उपासना करनी चाहिए । इसलिए गीता में अणु से भी अणु रूप परमात्मा का वर्णन है । निर्गुन स्वरूप का भी ज्ञान प्राप्त हो , उनकी उपासना की जाय , इसलिए गीता में ॐ तथा अव्यक्त स्वरूप का भी वर्णन है । जैसे भाँति - भाँति के पहिरावे के बदलने से पहननेवाला नहीं बदलता , वह अपने तईं जो का सो ही रहता है , उसी तरह स्थूल - सूक्ष्म तथा सगुण - निर्गुण भावों में परमात्मा ही रहते हैं । 

     केवल स्थूल सगुण रूप की ही उपासना से और उनकी कृपा से सूक्ष्म सगुण , निर्गुण शब्द - ब्रह्म ( ॐ ) तथा अव्यक्त स्वरूप परमात्मा के , आप - से - आप मिलने का विश्वास रखना तथा सूक्ष्म सगुण और निर्गुण की उपासना को अनावश्यक प्रतीत करना ठीक नहीं । 

     यदि वे उपासनाएँ अनावश्यक होतीं , तो गीता में कही ही नहीं जातीं । अध्याय ८ के श्लोक ९ से १३ में इनकी उपासना और उसका फल साफ - साफ कहा गया है ।

     श्रीमद्भागवत में भी स्थूल सगुण उपासना के अनन्तर शून्य - ध्यान ( सूक्ष्म सगुण - उपासना ) का क्रमानुसार कथन किया गया है । ( स्कन्ध ११ , अध्याय १४ , श्लोक ३२ , ३४ , ४२ , ४३ और ४४ ) । अव्यक्त निर्गुण के विषय में सूरदासजी के  ये शब्द हैं--

"जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत । तौं लौं मनु मणि कण्ठ बिसारे , फिरत सकल बन बूझत ॥ अपनो ही मुख मलिन मन्द मति , देखत दर्पण माँह । ता कालिमा मेटिबे कारण , पचत पखारत छाँह । तेल तूल पावक पुट भरि धरि , बनै न दिया प्रकासत । कहत बनाय दीप की बातें , कैसे हो तम नासत ।। सूरदास जब यह मति आई , वे दिन गये अलेखे । कह जाने दिनकर की महिमा , अन्ध नयन बिनु देखे ।।" 

तथा 

अपुनपौ आपुन ही में पायो । शब्दहि शब्द भयो उजियारो , सतगुरु भेद बतायो । ज्यों कुरंग नाभी कस्तूरी , ढूँढ़त फिरत भुलायो । फिर चेत्यो जब चेतन है करि , आपुन ही तन छायो ॥ राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण , भ्रम भयो कह्यो गँवायो । दियो बताइ और सतज्रन तब , तनु को पाप नशायो ॥ सपने माँहि नारि को भ्रम भयो , बालक कहूँ हिरायो । जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है , ना कहुँ गयो न आयो ॥ सूरदास समुझे की यह गति , मन ही मन मुसुकायो । कहि न जाय या सुख की महिमा , ज्यों गूंगो गुड़ खायो ॥ ( भक्तवर सूरदास ) 

     केवल स्थूल - सगुण को ही हठपूर्वक पकड़े नहीं रहना चाहिए । इसीलिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी ने ' गीता - रहस्य ' के भक्ति - मार्ग प्रकरण में लिखा है- ' साधन की दृष्टि से यद्यपि वासुदेव - भक्ति को गीता में प्रधानता दी गई है , तथापि अध्यात्म - दृष्टि से विचार करने पर वेदान्त - सूत्र की नाईं ( वे ० सू ० , ४/१/४ ) गीता में भी यही स्पष्ट रीति से कहा है कि ' प्रतीक ' एक प्रकार का साधन है - वह  सत्य , सर्वव्यापी और नित्य परमेश्वर हो नहीं सकता । अधिक क्या कहें ? नामरूपात्मक और व्यक्त अर्थात् सगुण वस्तुओं में से किसी को भी लीजिए , वह माया ही हैं ; जो सत्य परमेश्वर को देखना चाहे , उसे इस सगुण रूप के भी परे अपनी दृष्टि को ले जाना चाहिए । भगवान की जो अनेक विभूतियाँ हैं , उनमें अर्जुन को दिखलाए गए विश्वरूप से अधि क व्यापक भगवान ने नारद को दिखलाया , तब उन्होंने कहा है , ' तू मेरे जिस रूप को देख रहा है , यह सत्य नहीं है , यह माया है । मेरे सत्यस्वरूप को देखने के लिए इसके भी आगे तुझे जाना चाहिए । ' ( महाभारत , शान्तिपर्व , ३३ ९ / ४४ ) और गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट रीति से यही कहा है--
"अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥ ( गीता ७/२४ ) 

     यद्यपि मैं अव्यक्त हूँ , तथापि मूर्ख लोग मुझे व्यक्त ( गीता ७/२४ ) अर्थात् मनुष्य - देहधारी मानते हैं ( गीता ९ -११ ) ; परन्तु यह बात सच नहीं है , मेरा अव्यक्त स्वरूप ही सत्य है । इसी तरह उपनिषदों में भी यद्यपि उपासना के लिए मन , वाचा , सूर्य , आकाश इत्यादि अनेक व्यक्त और अव्यक्त ब्रह्म - प्रतीकों का वर्णन किया गया है , तथापि अन्त में यह कहा है कि जो वाचा , नेत्र या कान को गोचर हो , वह ब्रह्म नहीं है । जैसे-- 

यन्मनसा न मनुते येनाऽहुर्मनो मतम् । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ( केनोपनिषद् , खण्ड १ , मंत्र ५ ) 
अर्थ - मन से जिसका मनन नहीं किया जा सकता , किन्तु मन ही जिसकी मनन - शक्ति में आ  जाता है , उसे तू ब्रह्म समझ , जिसकी उपासना ( प्रतीक के तौर पर ) की जाती है , वह सत्य ब्रह्म नहीं है । 

     ' नेति नेति ' सूत्र का भी यही अर्थ है । मन और आकाश को लीजिए ; अथवा व्यक्त उपासना - मार्ग के अनुसार शालिग्राम , शिवलिंग इत्यादि को लीजिए ; या श्रीराम , कृष्ण आदि अवतारी पुरुषों की अथवा साधु पुरुषों की व्यक्त मूर्ति का चिन्तन कीजिए ; मंदिरों में शिलामय अथवा धातुमय देव की मूर्ति को देखिए ; अथवा बिना मूर्ति का मंदिर या मस्जिद लीजिए - ये सब  छोटे बच्चे की लँगड़ी गाड़ी के समान मन को स्थिर करने के अर्थात् चित्त की वृत्ति को परमेश्वर की ओर झुकाने के साधन हैं । प्रत्येक मनुष्य अपनी - अपनी इच्छा और अधिकार के अनुसार उपासना के लिए किसी प्रतीक को स्वीकार कर लेता है । यह प्रतीक चाहे कितना प्यारा हो , परन्तु इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि सत्य परमेश्वर इस ' प्रतीक ' में नहीं हैं ' - न प्रतीके न हिसः ( वे ० सू ० ४/१/४ ) -उसके परे है । यह मनुष्यों की अत्यन्त शौचनीय मूर्खता का लक्षण है कि वे इस सत्य तत्त्व को तो नहीं पहचानते कि ईश्वर सर्वव्यापी , सर्वसाक्षी , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान और उसके भी परे अर्थात् अचिन्त्य है । किन्तु वे ऐसे नाम - रूपात्मक व्यर्थ अभिमान के अधीन हो जाते हैं कि ईश्वर ने अमुक समय , अमुक देश में , अमुक माता के गर्भ से , अमुक वर्ण का , नाम का या आकृति का जो व्यक्त स्वरूप ध रण किया , वही केवल सत्य है और इस अभियान में फंसकर एक - दूसरे की जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं ।

     ' महात्मा गाँधी का कथन - ' साकार के उस पार निराकार अचिन्त्यस्वरूप है , यह तो सबको समझे ही निरस्तार है । भक्ति की पराकाष्ठा यह है कि भक्त भगवान में विलीन हो जाय और अन्त में केवल एक अद्वितीय अरूपी भगवान ही रह जाएँ । ' ( अनासक्तियोग , अध्याय १२ , श्लोक ५ के अर्थ की टिप्पणी से । ) 

     आचार्य विनोबाजी का कथन - ' सगुण पहले , परन्तु उसके बाद निर्गुण की सीढ़ी आनी ही चाहिए , नहीं तो परिपूर्णता नहीं होगी । ' ( गीता - प्रवचन , पृष्ठ १७३ ) । 

     इन उद्धरणों का आशय यह है कि परमात्मा के सगुण और निर्गुण ; दोनों रूपों का ज्ञान और उनकी उपासना चाहिए । 

     राजविद्या का क्या अभिप्राय है , इसके पहले लिखा जा चुका है । अब ' राजगुह्य ' का अभिप्राय भी स्पष्ट रूप से जान लेना आवश्यक है । गुप्त या गुढ़ रहस्यों में जो सबसे विशेष गुप्त हो , उसको राजगुह्य कहना चाहिए । इस अध्याय के किस विशेष रहस्यमय कथन को यह आकर्षक नाम दिया गया है ? यदि कहें कि प्रत्यक्ष जानने में आने योग्य स्थूल - सगुण नर - रूप परमात्मा के रूप की अवज्ञा नहीं करके उसमें अत्यन्त श्रद्धा रखकर इस अध्याय में कही गयी रीति से भक्ति करने का जो कथन है , वही राजगुह्य्य* तत्त्व है , तो यह कोई गुप्त और विशेष रहस्यमयी बात नहीं जान पड़ती । यह भक्ति तो भारत में सर्वत्र प्रकट है और अति व्यापक रूप से विदित है । हाँ , यदि उपर्युक्त प्रचलित स्थूल - सगुण भक्ति में सूक्ष्म - सगुण ' अणोरणीयाम्** ' ( विन्दु ) रूप की भक्ति और ॐ ∆  ( शब्दब्रह्म वा ब्रह्मनाद ) रूप निर्गुण निराकार - भक्ति मिला दें , तो इस प्रकार की ' सर्वांगपूर्ण परमात्म - भक्ति ∆ ' को अवश्य ' राजगुह्य ' कहेंगे । 

     यह प्रकट रूप से विख्यात नहीं है और अति स्वल्प संख्यक लोग ही इसे जानते हैं । यदि कहा जाय कि परमात्मा के ये ( विन्दु और नाद ) रूप प्रत्यक्षावगम ( प्रत्यक्ष जानने में आनेयोग्य ) नहीं हैं , तो इनके द्वारा उपासना वा भक्ति - विधि को ' राजगुह्य ' कैसे माना जाय ? तो उत्तर में निवेदन है कि क्या जन्मान्ध को सूर्य वा कोई अन्य रूप देखने में आता है ? क्या जन्मान्ध का कुछ भी देखना असम्भव नहीं है ? परन्तु जो जन्मान्ध नहीं है , उनके लिए संसार के विविध रंग - रूप क्या प्रकट नहीं है ? क्या अणुवीक्षण यन्त्र से और युक्ति से वायु में भंसते हुए अनेक त्रसरेणु और कीटाणु नहीं देखे जाते हैं ? देखने और सुनने की युक्तियाँ भक्तों को भेदी ( युक्ति जाननेवाले ) गुरु - द्वारा ज्ञात होती हैं , जिनके द्वारा अभ्यास करके वे विन्दु और नाद को सुखसाध्य रीति से प्रकट पाते हैं ; परन्तु जिनको इसका गुरु नहीं , जिनको गुरु की आवश्यकता ही नहीं जानने में आवे और जो गुरु में श्रद्धा - भक्ति रखनी पाप , अयोग्यता , अपना अपमान और मूढ़ता जाने वा गुरु में श्रद्धाभक्ति रखनेवाले होते हुए भी जिनकी बुद्धि केवल स्थूल और बाह्य भक्ति - विधि की टेक में ही जकड़कर अड़ी हुई रहती है , ऐसे लोग ' राजगुह्य ' नाम की भक्ति को जैसा कुछ समझें , उनके लिए वही ठीक है । 

     मैं अत्यन्त दृढ़तापूर्वक कहता हूँ कि ' राजगुह्य ' नाम की भक्ति ही असली राजयोग है । यदि गीता से कर्मयोग को निकाल दिया जाय तो गीता के सार रहस्य - रूप प्राण ही निकल ज ाते हैं । इस ' राजगुह्य ' नाम की भक्ति के साधक को कर्मयोग का साध न सुगमता से होता जाएगा । कर्मयोगी कर्तव्य कर्म में लगा रहता हुआ पहले स्थूल - सगुण मन में बनाए रखकर कर्म कर सकेगा । बाद में सूक्ष्म - सगुण के दर्शन हो जाने पर उसे ही मन से पकड़े हुए रहकर कर्म करेगा और अन्त में वह ॐ ( ब्रह्मनाद ) को प्राप्त करने पर अपने को उससे ही पकड़ा हुआ पावेगा । उसको सहज समाधि की स्थिति प्राप्त हो जाएगी । वह सारे कर्तव्यों को करता हुआ जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति ; तीनों अवस्थाओं में उस अनुपम परमात्मा से कभी नहीं बिछुड़ेगा ।

"शब्द निरन्तर से मन लागा , मलिन वासना भागी । ऊठत बैठत कबहुँ ना छूट , ऐसी ताड़ी लागी ।" ( कबीर साहब ) ।।

"सोवत - जागत ऊठत बैठत , टुक विहीन नहिं तारा । झिन - झिन जंतर निसि दिन बाजै , जम जालिम पचिहारा ।" ( दरिया साहब , बिहारी )

 ॥ नवम अध्याय समाप्त ।। 


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* गीता , अध्याय ८ , श्लोक १३ ।
**  गीता , अध्याय ८ , श्लोक ९ ।
∆  स्थूल सगुण भक्ति + सगुण अणोरणीयाम् ( विन्दु ) रूप की भक्ति + ॐ ( शब्दब्रह्म वा ब्रह्मनाद ) रूप निर्गुण निराकार - भक्ति - सर्वांग पूर्ण परमात्म - भक्ति । 

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प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि duraachaaree paramaatma ko pa sakata hai ki nahin? paramaatma kee sharan mein jaane se kaun-kaun mukt ho sakata hai? bhakt kyon banana chaahiye? paramaatma kee sthool aur sookshm upaasana kyon karanee chaahie? santon kee vaanee mein sthool sookshm upaasana ka varnan, sthool upaasana kaise karen? sookshm bhakti kaise karanee chaahie? asalee raajayog kya hai?  इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य  देखें।



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G09 (ख) असली राजयोग क्या है? जो जीवन बदल देता है ।। Shreemad Bhagavad Gita- 9th Chapter G09 (ख) असली राजयोग क्या है? जो जीवन बदल देता है ।। Shreemad Bhagavad Gita- 9th Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/16/2020 Rating: 5

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