G04 (ग) अपानवायु को प्राणवायु में और प्राणवायु को अपानवायु में होमना ।। Bhagavad Gita- 4rth Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G04 (ग) अपानवायु को प्राणवायु में और प्राणवायु को अपानवायु में होमना ।। Bhagavad Gita- 4rth Chapter

श्री गीता योग प्रकाश / 4 (ग)

प्रभु प्रेमियों ! श्री वेदव्यास जी ने महाभारत में गीता का वर्णन करने के उपरांत कहा है--गीता सुनीता कर्तब्य किमन्यौ: शास्त्रविस्तेर: । या स्वयं पद्द्नाभस्य मुखपद्दद्दिनी: सृता !! गीता सुनीता करने योग्य है अर्थात श्री गीता जी को भली प्रकार पढ़कर, अर्थ और भावसहित अंत: करण में धारण कर लेना मुख्य कर्तब्य है, जो की स्वयं पद्द्नाभ भगवान श्री विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई है; फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ???


इस लेख में बताया गया है  आत्म-संयम, परोपकार, दान, तप आदि रूपी यज्ञ क्या होता है? नासाग्र में प्राण को कैसे होमते हैं? नासाग्र रूपी यज्ञ में अग्नि क्या होती है? इस यज्ञ के करने से क्या लाभ होता है? अष्ट सिद्धि कैसे प्राप्त होती है? दृष्टि योग कैसे करते हैं? शांभवी मुद्रा क्या है? प्राण किसे कहते हैं?   इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- प्राण कितने प्रकार के होते हैं, प्राण का अर्थ क्या है, शरीर में प्राण कहां रहता है, प्राण वायु क्या है, प्राण वायु का अर्थ, प्राण शक्ति का अर्थ, प्राण क्या है, प्राण तत्व का अर्थ, पंच प्राणों के नाम, प्राण ऊर्जा क्या है, व्यान वायु का अर्थ, अपान वायु का अर्थ,  इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।

श्रीगीता-योग-प्रकाश के अध्याय 4 (ख) को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं 


नासाग्र में प्राण को कैसे होमते हैं ? इसका काल्पनिक चित्र

Apaanavaayu ko praanavaayu mein aur praanavaayu ko apaanavaayu mein homana

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं  What is a yajna in the form of self-restraint, benevolence, charity, penance etc.?  How do you live for life in the nose?  NASA what is fire in yagna?  What is the benefit of performing this yagya?  How is Ashta Siddhi attained?  How do you do vision yoga?  What is Shambhavi Mudra?  Who is Pran? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-


अध्याय ४ 

अथ ज्ञानकर्मसंन्यासयोग 

     ....कोई शब्दादि विषयों को इन्द्रियाग्नि में होम कर यज्ञ करते हैं । ( इन्द्रियों की चेतनधारों को अन्तर्मुख करके केन्द्र में केन्द्रित ) ऐसा करने से वहाँ अन्तर्ज्योति उदित होती है* 
तथा उस ज्योतिमण्डल में अनहद ध्वनि अनवरत रूप से ध्वनित होती रहती है । मानो उस प्रकाशाग्नि में शब्द की आहुति पड़ती हो और दूसरे सब विषय भी उस प्रकाश - मण्डल के अभ्यन्तर उदित हो - होकर उसमें लीन होते रहते हैं । मानो सब सूक्ष्म विषयों की आहुतियाँ उस प्रकाशाग्नि में पड़कर भस्म होती हैं ।**  
कोई इन्द्रियों के कर्मों को तथा प्राण के व्यापारों को ज्ञान - दीपक की प्रज्वलित आत्म - संयमरूप योगाग्नि में होमते हैं । ( इन्द्रियों और प्राणों के व्यापार चेतन - धारों के कारण से ही होते हैं । साधन - द्वारा इन चेतन - धारों को अन्तर में समेटकर केन्द्रित करने से ज्ञान - दीपक जलता है । ) 
जैसे मन्दिर दीपक बारा । ऐसे जोति होत उजियारा ॥ ( तुलसी साहब ) 

     यह अवश्य ही योगाग्नि का तेज है । इसको पाकर साधक वा इस यज्ञ को करनेवाला पूर्ण आत्म - संयमी हो जाता है । कोई परोपकारार्थ द्रव्य - दान - रूप यज्ञ , कोई तप - रूप यज्ञ , कोई योगाभ्यास - रूप यज्ञ , कोई स्वाध्याय - रूप यज्ञ और कोई ज्ञान - यज्ञ को अपानवायु ( अर्थात् ज्ञान - ग्रहण और ज्ञान - दान - रूप यज्ञ ) करते हैं । ये सब कठिन व्रती और प्रयत्नशील याज्ञिक होते हैं । प्राणायाम में निरत , प्राणवायु और अपानवायु दोनों को रोककर अपानवायु को प्राणवायु में और प्राणवायु में होमते हैं ।∆ 
( दृष्टि - योग से सुषुम्ना में ध्यान स्थिर हो जाने पर भी यह होम हो सकता है । ) अथवा अध्याय ६ में कहे गये नासान में देखने के अभ्यास से और दूसरे भोजन का संयम कर , प्राणों में प्राण होमते हैं । ( अर्थात् इन्द्रियगत चेतन - धारों#  
को दृष्टियोग - द्वारा एकत्र कर वा कर्मेन्द्रियों की चेतन - धाराओं को ज्ञानेन्द्रियों की की चेतन - धाराओं से मिलाकर , चेतन - धाराओं के रूप प्राणों को चेतन - धाराओं के रूप प्राणों में होमते हैं । आहार का संयम नहीं  रखने से उक्त योगाभ्यास नहीं हो सकता है । अध्याय ६ में इस संयम को आवश्यक बतलाया गया है । पहले जब दृष्टियोग के अभ्यास से युगल नेत्रों की चेतन - धाराएँ जुटकर एकविन्दुता ग्रहण करती हैं , तब सब इन्द्रियों की चेतनधाराएँ उसी विन्दु में खिंचकर , सब मिलजुलकर एक हो जाती हैं । इस प्रकार प्राण का प्राणों में होम होता है । ##

परन्तु इस होम को बिरला ही गुरुमुख जानता है और करता है ।¶ 

     उक्त यौगिक यज्ञ में ब्रह्म परमात्म - रूप अग्नि प्रत्यक्ष होती है । तब याज्ञिक को पूर्ण आत्म - ज्ञान प्राप्त होता है । उसके किये हुए अन्यान्य सब यज्ञ उस ब्रह्माग्नि में आप - से - आप ही आहुति होकर पड़ जाते हैं । वह याज्ञिक कर्म - रहित हो जाता है । ' कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हे । ' वह अहं - पद से ऊपर उठ जाता है । इस पद पर आरूढ़ रहकर अपने कर्तव्य कर्मों को करते हुए वह अकर्ता बना रहता है । इस ( यज्ञों ) को जाननेवाले याज्ञिक उपर्युक्त यज्ञों के द्वारा अपने पापों ( अर्थात् सर्व कर्म - बन्धनों ) को भस्मीभूत करते हैं । यज्ञ से बचा हुआ अमृत खानेवाले सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं । .... क्रमशः।।

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जिसे किसी आश्रय की लालसा नहीं है , वह कर्म में अच्छी तरह लगा रहने पर भी कुछ नहीं करता , ऐसा कहा जा सकता है । ' -महात्मा गाँधी । ( रेखांकण इस लेखक का है ) इसके द्वारा गीता कर्म में निमग्न रहने वा अच्छी तरह लगे रहने अर्थात् अत्यन्त मनोयोग से कर्म करने कहती है । पर यहाँ मन लगाकर कर्म करने के लिए ' विकर्म ' शब्द का प्रयोग नहीं करती है । इससे यहाँ अच्छी तरह प्रगट होता है कि गीता ' कर्म के साथ मन के मेल ' को ' विकर्म ' कदापि नहीं कहती है ।

( ३ ) ' कर्म में विकर्म उड़ेलने से अकर्म होता है । कर्म में विकर्म डाल देने से वह अकर्म हो जाता है , मानो कर्म करके फिर उसे पोंछ दिया हो ।

     ' ऐसा क्यों ? इसको युक्ति - युक्त रीति से कि ' मनोयोग से कर्म करने पर वह अकर्म क्यों हो जाता है , ' समझायें बिना ही ठीक नहीं है । पूर्ण मनोयोग से किया हुआ कर्म अकर्म हो जाएगा , यह मानने योग्य नहीं है । प्रथम तो ' विकर्म ' का अर्थ ' मनोयोगयुक्त कर्म ' लगाना भगवद्गीता के अनुकूल नहीं है । तब भगवद्गीता के आधार पर उपर्युक्त बातें कहनी पूर्णरूपेण असंगत है । 

नाम का तेल सुरत की बाती , ब्रह्म अग्नि उद्गार रे । जगमग जोत निहारू मन्दिर में , तन मन धन सब वारू रे ॥ ( कबीर साहब ) 

अणिमादि सिद्धियों के प्रलोभनों को हवन करते हैं । 

अपान में प्राणवायु को , प्राण में अपान को होमना ; दोनों का अवरोध करना , प्राणों को प्राण में होमना तथा शब्दादि विषयों को इन्द्रियाग्नि में होमना ; ये सब समाधि के साधन हैं । आगे इन साधनों पर यथा सम्भव प्रकाश डाला जाएगा । ये विशेष रूप से गुरुगम्य है। प्राण एवं प्राणवायु दोनों ही दृष्टियोग के अभ्यास से रुकते द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे । संविदशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥३२ ॥ भूमध्ये तारकालोकशान्तावन्तमुपागते । चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥३३ ॥ 

चिरकालं हृदेकान्तव्योम संवेदनान्मुने । अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ३४ ॥ ( शाण्डिल्योपनिषद् ) 
अर्थ - ' जब संवित् ( सुरत ) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो , तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है । '

     ' जब चेतन ( सुरत ) भौंओ के बीच के तारकलोक में पहुँचकर स्थिर होता है , तो प्राण की गति बन्द हो जाती है । ' 

     ' हृदयाकाश में संकल्प - विकल्प - रहित और वासनाहीन मन से बहुत दिनों तक ध्यान करने से प्राण की गति रूक जाती है । ' 

     उपनिषद् के इन वाक्यों का यदि कोई विश्वास नहीं करे तो उसे वर्णित साधन करके देखना चाहिए । प्राण के स्थिर होने पर , प्राण में अपान , अपान में प्राण का हवन होगा । दृष्टियोग - ध्यान से यह यज्ञ , प्राणायाम के कष्ट के बिना ही हो जाएगा । यह कहा जा सकता है कि दृष्टियोग - ध्यान - साधन प्राणायाम करने का सुगम और निरापद  साधन है ।

     मण्डल - ब्राह्मणोपनिषद् के ब्राह्मण २ में शाम्भवी मुद्रा और नासाग्र का लक्ष्य बतलाकर दृष्टियोग - साधन ही बताया है तथा इसके गुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि - तद्भ्यासान्मनः स्थैर्यम् । ततोः वायु - स्थैर्यम् । ' अर्थात् ' उसके अभ्यास से मन की स्थिरता आती है । इससे वायु स्थिर होता है ।

     # चेतन आत्मा को भी प्राण कहते हैं । देखो प्रश्नोपनिषद् , प्रश्न ६ का शांकर भाष्य । 

     ## इस होम में सुषुम्न - विन्दु हवन - कुण्ड है , युगल नेत्रों की चेतनधाराए ँ अरणि वा समिधा हैं और सब इन्द्रियों की चेतन - धाराएँ हवि हैं , ऐसा जानना चाहिए । 

     ¶ योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशयजी की संस्था की ' योग - संगीत ' नामक पुस्तिका में इसी आशय का निम्नलिखित पद्य 
आनन्दे आनन्द बाड़े प्रति क्षण , दशेन्द्रिय थाके शून्ये ते बन्धन । रिपुचय पराजय , सकलि आनन्दमय , अनुभव मात्र रय , आर सब पाय लय , जेमन जीवने जीवन थाके ना ।। 

और - 

तीन दिन परे त्रिगुणेर परे , श्रोतेर जलेते डूबिल प्रतिमा । दशमीर दशा ए दशम दशा , कि बले बुझाव बुझाते पारि ना ॥ पार्वती चले गेलेन कैलाशे , मिशेछेन सती कूटस्थ पुरुषे । सुखे कि दुखे ते विषादे हरषे , के आमी आमार मनेइ आसे ना ॥ 

इन पद्यों में वर्णित कर्म भी उपर्युक्त यौगिक होम से ही होता है ।

 जो परोपकार से बचे हुए धन को अपने काम में लाता है और दूसरे सब उक्त यज्ञों को करता है , वह सनातन ब्रह्म को निःसंशय प्राप्त करेगा । इन्द्रियाग्नि में शब्दादि विषयों को होमने को कुछ लोग भजनादि सुनना बताते हैं परन्तु शब्दादि पंच विषयों को परमात्म - सम्बन्धी भक्ति - भाव में लाकर उन - उन विषयों को इन्द्रियों से युक्त कर देना होता है । इस तरह इन्द्रियाग्नि में विषयों को होमकर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति हो , सम्भव नहीं है । इस यज्ञ का दूसरा प्रकार सूक्ष्म है । ... क्रमशः।।


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प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि aatm-sanyam, paropakaar, daan, tap aadi roopee yagy kya hota hai? naasaagr mein praan ko kaise homate hain? naasa karo ki yagy mein agni kya hotee hai? is yagy ke karane se kya laabh hota hai? asht siddhi kaise praapt hotee hai? drshti yog kaise karate hain? shaambhavee mudra kya hai? praan kise kahate hain? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य  देखें।  



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G04 (ग) अपानवायु को प्राणवायु में और प्राणवायु को अपानवायु में होमना ।। Bhagavad Gita- 4rth Chapter G04 (ग) अपानवायु को प्राणवायु में और प्राणवायु को अपानवायु में होमना  ।।  Bhagavad Gita- 4rth Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/26/2018 Rating: 5

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