G04 (घ) श्री कृष्ण-लीला और ज्ञान-यज्ञ की महिमा ।। Shrimad Bhagavad Gita- 4rth Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G04 (घ) श्री कृष्ण-लीला और ज्ञान-यज्ञ की महिमा ।। Shrimad Bhagavad Gita- 4rth Chapter

श्रीगीता-योग-प्रकाश / 4 (घ)

      प्रभु प्रेमियों ! वराह पुराण बताया गया है- गीतायाः पुस्तकं यत्र पाठः प्रवर्तते- तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै- अर्थात् जहां श्री गीता की पुस्तक होती है और जहां श्रीगीता का पाठ होता है, वहां प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते है। * सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये-गोपालबालकृष्णोऽपि नारदध्रुवपार्षद : सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते --- अर्थात् जहां श्री गीता प्रवर्तमान है वहां सभी देवों , ऋषियों , योगियों , नागो और गोपालबाल, श्रीकृष्ण भी नारद , ध्रुव आदि सभी पार्षदों सहित जल्दी ही सहायक होते है।

इस लेख में बताया गया है  द्रव-यज्ञ से ज्ञान-यज्ञ क्यों श्रेष्ठ है? निधिध्यासन ज्ञान में अभ्यासी को क्या-क्या दिखलाई पड़ता है?  ज्ञानाग्नि के विशेषता क्या है? ज्ञान का लाभ किसको ज्यादा होता है? ज्ञान और योग आवश्यक क्यों है? भगवान की लीला पर विशेष चर्चा किस तरह होना चाहिए? कुब्जा और गोपियों की लीला का वर्णन गुरुदेव क्यों नहीं किए? इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकि सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- ज्ञान का अर्थ, ज्ञान की बातें, कृष्ण भगवान की सम्पूर्ण जीवन गाथा, लीला करने की जगह का पर्यायवाची, लीला करने की जगह को क्या कहते हैं, कृष्ण भगवान की लीला, विष्णु भगवान की लीला, भगवान का लीला, कृष्ण भगवान की लीला दिखाइए, श्री कृष्ण-कुब्जा लीला, श्री कृष्ण बाल लीला, श्री कृष्णा,महाभारत कृष्ण लीला, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।

श्रीगीता-योग-प्रकाश के अध्याय 4 (ग) को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं 


ज्ञान यज्ञ और श्री कृष्ण लीला पर चिंतन करते गुरुदेव महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

Description of the specialties of Shri Krishna-Leela and Jnana-Yajna

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं  Why is the Yajna Yagna better than the fluid sacrificial fire?  What do practitioners see in Nididhyasana knowledge?  What is the specialty of enlightenment?  Who benefits more from knowledge?  Why is knowledge and yoga necessary?  How should there be a special discussion on God's Leela?  Why did Gurudev not describe Leela of Kubja and Gopis? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-


अध्याय ४ 

अथ ज्ञानकर्मसंन्यासयोग 

     .......यज्ञ से वा परोपकारार्थ दिए हुए धन से बचे हुए धन*
का उपयोग करनेवाले होकर सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं । यज्ञ न करनेवाले के लिए यह लोक सुखकर नहीं हो सकता है । तब उसे परलोक का सुख और मोक्ष कहाँ से हो सकता है ? द्रव्य - यज्ञ से ज्ञान - यज्ञ श्रेष्ठ है । ज्ञान में सम्पूर्ण कर्मों का अन्त हो जाता है । इस विषय को , आत्म - तत्त्व के जाननेवाले ज्ञानियों के पास जाकर , उन्हें प्रणाम और उनकी सेवा कर विनीत भाव से प्रश्न करके उनसे जानना चाहिए । 

     ज्ञान - प्राप्त पुरुष को अपने में और परमात्मा में सारा ब्रह्माण्ड दरसता है । यह ज्ञान केवल बौद्धिक ही नहीं होता है , वरंच श्रवण , मनन और निदिध्यासन की समाप्ति के पश्चात् पूर्ण समाधि - द्वारा अनुभूत होकर अपरोक्ष रूप से प्राप्त होता है । निदिध्यासन में अभ्यास द्वारा चलते - चलते अभ्यासी को अपने अन्दर सारा ब्रह्माण्ड दिखाई देने लगता है और अन्त में उसे स्व - स्वरूप - सहित परमात्म - स्वरूप का भी प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । ज्ञान - यज्ञ यहाँ समाप्त हो जाता है । अभ्यासी जीवन्मुक्त होते हुए विदेह - मुक्त होकर ब्रह्म - निर्वाण को प्राप्त कर जन्म - मरण से छूटकर , दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । सब पापियों से भी यदि कोई बढ़कर पापी हो , तो भी वह ज्ञान - नौका - द्वारा सब पापों को पार कर जाएगा । ज्ञानाग्नि में सब पाप भस्म हो जाते हैं। संसार में ज्ञान - तुल्य कुछ भी पवित्र नहीं है । ज्ञान की पूर्णता केवल श्रवण और मनन मं नहीं है । इसलिए अपने अन्दर निदिध्यासन करके इसके अन्त में पहुँचकर , अपने अन्दर में ही ज्ञान की पूर्णता प्राप्य है ।
     जितेन्द्रिय , श्रद्धावान और ईश्वर - भक्त पुरुष , ज्ञान पाकर तुरन्त परम शान्ति पाता है । अज्ञानी और श्रद्धाहीन होकर जो संशययुक्त रहता है , वह नाश को प्राप्ता होता है अर्थात् कष्टमय जगत में पड़ा रहता है । उसे इस लोक और परलोक में कहीं भी शान्ति - सुख नहीं मिलता है । जो योग - द्वारा ज्ञानी बन कर्म करता
हुआ अकर्मी बन , संशयरहित हो जाता है , उसको कर्मों का बन्धन नहीं होता है । इसलिए सबको चाहिए कि हृदयस्थ अज्ञान से उत्पन्न संशयों को ज्ञान - तलवार से काट , योग का अवलम्बन ग्रहण करें और संसार के कर्तव्यों का सम्पादन करने के लिए तैयार हो।

     वस्तुतः श्रवण और मनन ज्ञान सहित योगाभ्यास करते रहकर संसार के कर्तव्यों को निर्णय से करते रहना उचित है नौ के संसार के कर्तव्य को छोरे रहना ।

।।चतुर्थ अध्याय समाप्त।।


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.......
     *  जो परोपकार से बचे हुए धन को अपने काम में लाता है और दूसरे सब उक्त यज्ञों को करता है , वह सनातन ब्रह्म को निःसंशय प्राप्त करेगा । इन्द्रियाग्नि में शब्दादि विषयों को होमने को कुछ लोग भजनादि सुनना बताते हैं परन्तु शब्दादि पंच विषयों को परमात्म - सम्बन्धी भक्ति - भाव में लाकर उन - उन विषयों को इन्द्रियों से युक्त कर देना होता है । इस तरह इन्द्रियाग्नि में विषयों को होमकर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति हो , सम्भव नहीं है । इस यज्ञ का दूसरा प्रकार सूक्ष्म है । इन्द्रियों से ऊपर रहकर ब्रह्म - ज्योति का दर्शन करो । अनहद नादों को सुनो , तत्सम्बन्धी आन्तरिक रस का आस्वादन करो , चेतन - धार के चेतन - धार से मिलन के स्पर्श - सुख से सुखी होओ , वा परा प्रकृति - रूप जीव को अपरा और परा प्रकृतियों के स्वामी क्षराक्षर पुरूष - पर पुरुषोत्तम से मिलाओ और तत्सम्बन्धी स्पर्शसुख भोगो । तुरीयावस्था में मिलनेवाली देव - दुर्लभ दिव्य गन्ध को प्राप्त करो । ऐसा होता है । इसके लिये संतवाणी सुनो श्रवण बिना धुनि सुनै , नयन बिनु रूप निहारै । रसना बिनु उच्चर , प्रशंसा बहु विस्तारै ॥ नृत्य चरण बिनु करै , हस्त बिनु ताल  बजावै । अंग बिना मिली संग , बहुत आनन्द बढ़ावै ॥ बिनु शीश नवै जहँ सेव्य को , सेवक भाव लिये रहे । मिलि परमातम सों आतमा , परा भक्ति ' सुन्दर ' कहै । ( सुन्दरदासजी ) भजन में होत आनन्द आनन्द । बरसत विशद अमी के बादर , भीजत है कोइ सन्त । अगर बास जहँ तत की नदिया , मानो धारा गंग । कर स्नान मगन हो बैठो , चढ़त शब्द के रंग ॥ ( कबीर साहब ) 

"विमल विमल बानी उठे , अदबुद असमाना हो । निर्मल बास निवास में , कर कर कोइ जाना हो । दूसरा पाठ निशि बासर जहाँ अगर बहे .........। ( तुलसी साहब )

द्वादस इंगला पिंगला जाय । परिमल बास अन तह पाय ॥ ( दरिया साहब , बिहारी ) 

     वे जो केवल मोटे और बाहरी विचारों में लगे हुए हैं , तथा मानसिक और बौद्धिक साधन में अनुरक्त हैं , उन्हें सन्त - साधना में लीन किसी योग्य पुरुष से बिना जिज्ञासा किये , उपर्युक्त गूढ़ रहस्य की जानकारी नहीं हो सकती है । बाहरी भाववालों ने तो यहाँ तक किया कि स्पर्श - विषय को इन्द्रियाग्नि में होमने के लिए अपने को गोपी , सखी वा पत्नी भाव में ( यहाँ तक कि वेश - भूषा में भी ) लाया । यह नहीं कि कबीर साहब आदि सन्तों ने अपने को , सुखी वा पत्नी भाव में अपने भजनों में नहीं वर्णित किया है । परन्तु उनका भाव बहुत उच्च और अत्यन्त पवित्र है । उनके भजनों से जानने में आता है ; यथा 
सखिया वा घर सब से न्यारा , जहँ पूरन पुरुष हमारा टेक ॥ जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहिं , पाप न पुन पसारा । नहिं दिन रैन चन्द नहिं सूरज , बिना ज्योति उजियारा ॥ ( कबीर साहब )

 " हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि साजि श्रुति पिउ पै चली । गिरि गवन गोह गुहारि मारग चढ़त गढ़ गगना गली ॥

 

"आली पार पलंग बिछाइ पल पल ललक पिउ सुख पावहीं । खुस खेल मेल मिलाप पिउ कर पकरि कंठ लगावहीं ॥ रस रीति जीति जनाइ आसिक इश्क रस बस ले रही । पुरुष सेज़ सँवारि सजनी अजब आली सुख का कही । मुख बैन कहनि न सैन आवै चैन चौज चिन्हावहीं । आली सन्त अन्त अतन्त जानै बूझि समझि सुनावहीं ॥ जिन चीन्हि तन मन सुरत साधी भवन भीतर लख लई । जिन गाइ शब्द सुनाइ साखी भेद भाषा भिनि भई ॥ आली अलख अण्ड न खलक खंडा पलक पट घट - घट कही । तुलसी तोल बोल अबोल बानी बूझि लखि बिरले लई । ' ( तुलसी साहब )

 श्रीमद्भागवत के स्कन्ध १० , अध्याय २१ , श्लोक ११ में गोपियों के भाव के लिए यह लिखा है - ' उनका ( गोपियों का ) श्रीकृष्ण के प्रति भगवद्भाव नहीं था , जार - भाव था , परन्तु कहीं सत्य वस्तु भी भाव की अपेक्षा रखती है ? उन्होंने जिनका आलिंगन किय ा , चाहे किसी भी भाव से किया हो , वे स्वयं परमात्मा ही तो थे । इसलिए उन्होंने पाप और पुण्य - रूप कर्म के परिणाम से बने हुए गुणमय शरीर का परित्याग कर दिया । भगवान की लीला में सम्मिलित होने योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया । इस शरीर में भोगे जानेवाले कर्मबन्धन तो ध्यान के समय ही छिन्न - भिन्न हो चुके थे । ( श्री भागवत सुधासागर , गीता प्रेस , गोरखपुर ) 

     परन्तु कुब्जा के लिए दूसरा ही लिखा है - ' भगवान श्रीकृष्ण सच्दिानन्दस्वरूप होने पर भी , लोकाचार का अनुकरण करते हुए , तुरन्त उस ( कुब्जा ) की बहुमूल्य सेज पर जा बैठे । तब कुब्जा ...... अपने को खूब सजाकर लीलामयी लजीली मुसकान तथा हाव - भाव के साथ भगवान की ओर देखती हुई उनके पास आई । कुब्जा नवीन मिलन के संकोच से कुछ झिझक रही थी । तब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने उसे अपने पास बुला लिया और उसकी कंकण से सुशोभित कलाई पकड़कर अपने पास बैठा लिया और उसके साथ क्रीड़ा करने लगे .... .... परन्तु उस दुर्भागा ने उन्हें प्राप्त करके भी वज - गोपियों की भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा - ' प्रियतम ! आप कुछ दिन यहीं रहकर मेरे साथ क्रीड़ा कीजिये ; क्योंकि हे कमलनयन ! मुझसे आपका साथ नहीं छोड़ा जाता । ......... उन्होंने ( श्रीकृष्ण ने ) अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीका र की । ' ( श्रीभागवत सुधासागर , गीता प्रेस , गो ० , स्क . १० , अ ० ४८ , श्लोक ४-१०तक )

     कुब्जा को गोपियों की तरह बुद्धि नहीं हुई , ऐसा क्यों ? -समझ में नहीं आता है । फिर जब द्वारिका से , श्रीबलरामजी व्रज में एक बार वहाँ के सब लोगों से मिलने आये थे , तब उनकी क्रीड़ा के बारे में ऐसा लिखा है - ' बलरामजी ने गोपियों के साथ वारुणि का पान किया ॥२० ॥ जैसे गजराज हथनियों के साथ क्रीड़ा करता है , वैसे ही गोपियों के साथ जल - क्रीड़ा करने लगे ॥२८ ॥ ( श्री भा ० सु ० , गीता प्रेस , गोरखपुर , स्क ० १० , अ ०६५ )

      श्रीकृष्ण भगवान की गोपियों और कुब्जा के साथ क्रीड़ा का वर जिनको इच्छा हो , स्वयं पढ़कर जाने। श्रीमद्भागवत में लिखित इन क्रीड़ाओं का पूरा वर्णन श्रीमद्भागवत में पढ़ें । पुनः श्रीबलरामजी की गोपियों के साथ क्रीड़ा का भी वर्णन  लिखना मुझे नहीं सुहाता ।

     भगवान के आलिंगन के विशेष गुण का प्रभाव गोपियों पर हुआ । उनके पाप और पुण्यरूप कर्म के परिणाम से बने हुए गुणमय शरीर का परित्याग हुआ और उन्होंने भगवान की लीला में सम्मिलित होनेयोग्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया । गोपियों के प्राकृत शरीर से भोगे जानेवाले कर्म - बन्धन तो ध्यान के समय ही छिन्न - भिन्न हो चुके थे । ऐसा श्रीभगवान के आलिंगन का उपर्युक्त विशेष प्रभाव कुब्जा पर नहीं हुआ । तभी तो उनको ' अभागा ' श्रीमद्भागवत में लिखा गया है । यदि यह कहा जाय कि गोपियाँ भगवान के प्रति प्रथम जार - भाव के अतिरिक्त और कोई विशेष भाव रखती थीं , जो कुब्जा नहीं रखती थी , तो भागवत में वहीं पर यह लिखा है कि - ' कहीं सत्य वस्तु भी भाव की अपेक्षा रखती है ? उन्होंने जिनका आलिंगन किया , चाहे किसी भी भाव से किया हो , वे स्वयं परमात्मा ही तो थे । ' भगवान के इस प्रभाव से कुब्जा को भी गोपी ही की तरह होना चाहिये था , सो नहीं हुआ । गोपियाँ पुनः श्रीबलरामजी की क्रीड़ा में भी सम्मिलित हुई । तब भी उनके अप्राकृत शरीर ही रहे होंगे । क्या अप्राकृत शरीर इन्द्रिय - गोचर होता है ? अप्राकृत पदार्थ का इन्द्रिय - गोचर होना असम्भव है । श्रीमद्भागवत के ऐसे वर्णनों को । पढ़कर मैं आश्चर्यिंत होता हूँ ।

     इन मोटे और बाहरी भावों से बचे रहकर , सन्तों के बताये आन्तरिक और सूक्ष्म भावों की ही ओर लोगों का लगना उचित है । 

     यज्ञ से बचे हुए भोजन के विषय में यह और विशेष जानना चाहिये कि अन्तर - साधन - काल में , तत्सम्बन्धी यज्ञ में प्राप्त सुख का प्रभाव , साधन छोड़कर बाहरी कर्मों में बरतते समय भी रहता है । उसमें ( बाह्य कर्म में ) पडे रहने में भी उसका भोग होता रहता इसके भोगने को ' यज्ञ से बचे हुए का भोजन करना ' कहना चाहिये । उक्त प्रकार के अभ्यासी वा याज्ञिक को ही आत्मपरायणता या ब्रह्मपरायणता , समत्व - योग , समत्व - बुद्धि , आत्मा द्वारा आत्मा में सन्तुष्टि , स्थितप्रज्ञता , संयमशीलता , ब्राह्मी स्थिति , विकारशून्यता , कर्म करते हुए कर्मों में अलिप्तता और ज्ञानी भक्त होने का गुण तथा शम - दम आदि गीता में वर्णित मोक्षदायक सब उच्च गुण प्राप्त हों , यही सम्भव है । 

     इन विषयों को प्रकाशित किये बिना ' गीता - ज्ञान ' का सार छिपा रहेगा और सार - रहित ' गीता - ज्ञान ' के प्रचार से सं सार की हानि होगी । 

     यज्ञों का वर्णन करते हुए गीता में तप का भी आदेश है । गीता में वर्णित सब याज्ञिकों को तपी और उनके कर्मों को तप कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा । इसके अतिरिक्त जो - जो तप जो करना चाहें और जिनसे जो बन सके , सो करें । 

और 

न तपस्तप इत्याहुब्रह्मचर्य तपोत्तमम् । ऊर्ध्वरेता भवेद्यस्तु स देवो न तु मानुषः ॥ ( ज्ञानसंकलिनी तन्त्र ) 
अर्थ - तप को तप नहीं कहते हैं , ब्रह्मचर्यानुष्ठान ही तपस्या कहकर विशेष प्रसिद्ध किया गया है । जो मनुष्य ऊर्ध्वरेता हैं , वे देव - तुल्य कहे गये हैं । समाप्त।।


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प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि drav-yagy se gyaan-yagy kyon shreshth hai? nidhidhyaasan gyaan mein abhyaasee ko kya-kya dikhalaee padata hai?  gyaanaagni ke visheshata kya hai? gyaan ka laabh kisako jyaada hota hai? gyaan aur yog aavashyak kyon hai? bhagavaan kee leela par vishesh charcha kis tarah hona chaahie? kubja aur gopiyon kee leela ka varnan gurudev kyon nahin kie? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य  देखें।  



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G04 (घ) श्री कृष्ण-लीला और ज्ञान-यज्ञ की महिमा ।। Shrimad Bhagavad Gita- 4rth Chapter G04 (घ)  श्री कृष्ण-लीला और ज्ञान-यज्ञ की महिमा ।। Shrimad  Bhagavad Gita- 4rth Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/26/2018 Rating: 5

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