G05 सन्यासी के कर्म और कर्मयोग की विशेषताएं ।। Shrimad Bhagwat Geeta- 5th Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G05 सन्यासी के कर्म और कर्मयोग की विशेषताएं ।। Shrimad Bhagwat Geeta- 5th Chapter

श्री-गीता-योग-प्रकाश / 05 

प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाशइसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।

इस लेख में बताया गया है  सन्यासी किसे कहते हैं? क्या गृहस्त भी सन्यासी हो सकता है? इच्छा समाप्त कैसे होती है? संख्या-ज्ञान और ध्यानाभ्यास दोनों एक दूसरे के पूरक क्यों है? सन्यासयोगी और कर्मयोगी का आपसी संबंध कैसा होता है? ब्रह्म निर्वाण कौन पाता है? यम और नियम किसे कहते हैं? शराब मुक्त योगी के क्या लक्षण है? प्राणायाम करना निरापद् क्यों नही है? दृष्टि योग की विशेषता क्या है?  इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- सन्यास किसे कहते हैं, त्याग किसे कहते हैं, सन्यासी की दिनचर्या, सन्यासी की परिभाषा, सन्यासी का अर्थ, सन्यासी in English,मुझे सन्यासी बनना है, संन्यासी संधि, सन्यासी कौन है, संन्यास की परिभाषा, कर्म क्या है गीता, कर्मयोग का सिद्धांत, कर्म के प्रकार, कर्मयोग की विशेषताएं, गीता ज्ञान कर्म योग, निष्काम कर्म श्लोक, निष्काम कर्मयोग भगवद गीता,, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।

श्रीगीता-योग-प्रकाश के अध्याय 4 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं 


सन्यासी के काम पर चिंतन करते हुए सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज

सन्यासी के कर्म और कर्मयोग की विशेषताएं

सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज कहते हैं- बहुत कोशिशों के बाद भी किसी-न-किसी तरह गलत काम हो जाता है। गलत काम करने से हम लोग क्यों नहीं बच पाते हैं? समाधान क्या है? केवल विचारों से इच्छाओं को रोकना क्षणिक होगा, स्थाई नहीं । परंतु यदि विचार द्वारा उन्हें रोकने के साथ-साथ ध्यानाभ्यास किया जाए, तो तुरंत सूरत (चेतन आत्मा) की उन्नति होगी और वह मन मंडल को पार कर जाएगी। तब मनोलय हो जाएगा, जिसके साथ इच्छा का भी लोप हो जाएगा और हम कोई गलत काम नहीं कर पाएंगे। sanyaasee kise kahate hain? kya grhast bhee sanyaasee ho sakata hai? ichchha samaapt kaise hotee hai? sankhya-gyaan aur dhyaanaabhyaas donon ek doosare ke poorak kyon hai? sanyaasayogee aur karmayogee ka aapasee sambandh kaisa hota hai? brahm nirvaan kaun paata hai? yam aur niyam kise kahate hain? sharaab mukt yogee ke kya lakshan hai? praanaayaam karana niraapad kyon nahee hai? drshti yog kee visheshata kya hai? इस बारे में विस्तार से जानकारी के लिए पढ़ें 'श्रीगीता योगप्रकाश' का पांचवा अध्याय-


अध्याय ५

अथ कर्मसंन्यासयोग 

इस अध्याय में कर्मयोग और संन्यासयोग ; दोनों को एक दूसरे का पूरक बताया गया है । 

     किसी से द्वेष नहीं करनेवाले और इच्छा - विहीन रहनेवाले को संन्यासी कहना चाहिए । सुख - दुःख आदि द्वन्द्वों से रहित को बन्धन से मुक्त कहना चाहिए । ऐसा पूर्ण संन्यासी होता है । 

     संन्यासी का भेष लेकर वा घर - गृह यदि कोई अध्याय ४ में कहे गए साधनों को करे तो वह साध बढ़त - बढ़ता अन्त में पुर्ण संन्यासी होगा । जैसे शरीर में मैल उपजती है , वैसे ही मन में इच्छाएँ ( राजसी , तामसी , और सात्त्विकी ) स्वाभाविक रूप से उपजती रहती हैं । योगाभ्यास - द्वारा मन - मण्डल को पार किए बिना , कोई इच्छा - विहीन नहीं हो सकता है । मन - मण्डल कहाँ तक है
"मन बुद्धि चित हंकार की , है त्रिकुटी लगि दौड़ । जन दरिया इनके परे , रंकार की ठौर ॥" ( मारवाड़ी दरिया साहब ) 

     केवल विचार से इच्छाओं का रोकना क्षणिक होगा , स्थायी नहीं । परन्तु यदि विचार - द्वारा उन्हें रोकने के साथ - साथ ध्यानाभ्यास किया जाय तो सुरत ( चेतनात्मा ) की ऊर्ध्वगति होगी और वह मन - मण्डल को पार कर जाएगी । तब मनोलय हो जाएगा , जिसके साथ इच्छा का भी लोप हो जाएगा । 

     समत्व के विषय में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महोदय ने अपने ' गीता - रहस्य ' के अध्यात्म - प्रकरण में क्या ही गीता लेख चित्र एक अच्छा कहा है- “ संकट के समय भी पूरी समता से बर्ताव करने का अचल स्वभाव हो जावे ; परन्तु इसके लिए ( सुदैव से हमारे समान चार अक्षरों का कुछ ज्ञान होना ही बस नहीं है ) अनेक पीढियों के संस्कारों की इन्द्रिय-निग्रह की, दीर्घोद्योग की तथा ध्यान और उपासना की सहायता अत्यन्त आवश्यक है । ' सांख्यनिष्ठ और योगनिष्ठा , दोनों को अज्ञ जन अज्ञान से दो जानते हैं यथार्थ में दोनों एक ही हैं । एक के बिना दूसरा मोक्षदायक हो ही नहीं सकता । ' योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम् ........ ' [ कृपया पृष्ठ ५ की  (अध्याय 2 ##) टिप्पणी देखें

     सांख्य में निष्ठावालों के लिए श्रवण , मनन और स्वाध्याय द्वारा परोक्ष अध्यात्मज्ञान की प्राथमिक पूँजी जिस तरह अनिवार्य रूप से अपेक्षित है , ठीक उसी भाँति यह कर्मयोगी के लिए भी है तथा दोनों को पूर्णावस्था तक पहुँचाने के लिए प्राणायाम - सहित ध्यानोपासना - योग वा केवल ध्यानोपासना - योग भी अत्यन्त अपेक्षित है । इसके बिना , दोनों - के - दोनों लँगड़े और अपूर्ण रहेंगे । ये दोनों निष्ठावाले यदि उक्त साधनों की अवहेलन करेंगे और अपने - अपने को सांख्यनिष्ठ और कर्मयोगनिष्ठ घोषित करेंगे , तो दोनों ही केवल डींग ही हाँका करेंगे और यर्थाथता से दूर ही रहेंगे । 
वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुन , भव पार न पावइ कोई । निसि गृह मध्य दीप की बातन्हि , तम निवृत्त नहिं होई । ( गो ० तुलसीदासजी ) 

और 

तेल तूल पावक पुट भरि धरि , बनै न दिया प्रकासत कहत बनाय दीप की बातें , कैसे हो तम नासत ॥ ( भक्तप्रवर सूरदासजी

     सांख्यज्ञान वा संन्यासयोग में कुछ - न - कुछ कर्मयोग का संग अवश्य रहेगा ; क्योंकि स्वल्पातिस्वल्प का भी संग्रह उसको अवश्य रहेगा , जिसमें उसको कर्मयोग के नियम से बरतन पड़ेगा । कर्मयोगी को तो अपने विविध संग्रहों और कर्तव्यों में अपने हृदय को परम त्यागी वा संन्यासी बनाए रखकर ही कम करना पड़ेगा । इस भाँति किसी - न - किसी प्रकार कर्मयोग से ही कर्म का त्याग हो सकेगा । कर्म में अकर्मी , कर्मफलत्यागी हो प्रथम कथित ध्यानोपासना आदि साधन करके समत्व लाभ करेगा । ऐसे मुनि को मोक्ष की प्राप्ति में विलम्ब नहीं होगा । ऐस योगी तत्त्वज्ञ होता है । वह मन , वचन और शारीरिक कर्मों में निर्लिप्त रहता है । जैसे पानी में कमल निर्लिप्त रहता है , वैसे पाप उसको नहीं छू सकता है । साधनावस्था में उसके सब कर्म आत्मशुद्धि के लिए होकर , ब्रह्मार्पण हो जाते हैं । वह योगी समतावान और कर्मफल - त्यागी बनकर परम शान्ति पाता है परन्तु अयोगी बन्धन में पड़ा रहता है । इस तरह योगी पुरुष नौ छिद्रों वा द्वारों ( आँखों के दो , कानों के दो , नाक के दो , मुँह क एक , लिंग का एक और गुदा का एक ) वाले शरीर - नगर में संयमप ूर्वक रहते हुए , कर्मरत रहकर भी अकर्मी बना रहता है उसका मन कर्मफल में आसक्त नहीं होता है । ऐसा इसलिए कि योग से उसको पूर्ण वा अपरोक्ष आत्म - ज्ञान प्राप्त हो जाता है इन्द्रिय - सम्बन्धी सुखों से वह ऊपर उठकर ब्रह्म - सुख का भोगी हो जाता है । मन पूर्ण रूप से उसके वश में हो जाता है । तब इन्द्रिय - सम्बन्धी सुख - दुःख - उत्पादक बाह्य भोगों में उसका मन क्यों लिप्त होगा ?

     परन्तु वर्णित स्थिति पर आए बिना , केवल बुद्धि - शक्ति के ही प्रयास से मन की यह निर्लिप्त दशा होनी असम्भव है आत्म - ज्ञान से अज्ञान को पूर्णरूपेण विनष्ट करके उस आत्मतेजोमय सूर्य - ज्ञान से परम तत्त्व परमात्मा का दर्शन होता है अर्थात् आत्मा से ही परमात्मा का दर्शन होना सम्भव है । ऐसे दर्शन करनेवाले का पाप धुल जाता है । वह परमात्म - परायण होकर , उन्हीं मे तन्मय रहते हुए और उन्हीं को सर्वस्व - रूप में पाते हुए मुक्त दशा में रहता है । वह संसार , संसार के सब पदार्थों और सब ऊँच - नीच शरीर - धारियों में समदर्शी हो जाता है । मानो वह संसार पर विजय प्राप्त किए हुए होता है । अपने को निष्कलंक ब्रह्ममय बना लेता है । क्योंकि वह ब्रह्म में लीन रहता है सांसारिक सुख - दुःख से रहित रहता हुआ , बाह्य विषयों मे आसक्तिहीन , आन्तरिक आनन्द का भोगी वह ब्रह्मपरायण अक्षय आनन्द को पाता रहता है । काम - क्रोधादि विकारों से रहित होकर अन्तर्योति - प्राप्त वह जीवन्मुक्त योगी पुरुष ब्रह्म - निर्वाण पाता है । चतुर वा बुद्धिमान विषय - जनित भोग को दुःख का कारण और आदि - अन्तवाला जानकर उनमें रत नहीं होता है ।

     अहिंसा , सत्य , अस्तेय ( चौर - कर्म से रहित ) , ब्रह्मचर्य ( वीर्य - निग्रह ) और अपरिग्रह ( आवश्यकता से अधिक का संग्रह वा संचय न करना ) ; ये पाँच यम कहलाते हैं । शौच सन्तोष , तप , स्वाध्याय और ईश्वर - प्रणिधान - ये पाँच नियम कहलाते हैं । यम - नियम का पालन करते हुए बाह्य विषय - भोग में अलिप्त रहकर , दृष्टि को भौंओ के बीच स्थिर रखकर , नाक से आने - जानेवाली प्राण और अपान वायुओं की गति को सम करके ; इन्द्रिय , मन एवं बुद्धि को वश में करके तथा इच्छा , भय और क्रोध से रहित होकर , जो मननशील ( मुनि ) मोक्ष - साधन मे लगा रहता है , वह सदा मुक्त ही है । वह यज्ञ और तप के सबके हित करनेवाले और सब लोकों के महाप्रभ कृष्ण - परमात्मा को पहचानता हुआ शान्ति प्राप्त करता है । 

     कतिपय साधक पूरक , कुम्भक तथा रेचन के साधनों से प्राण - अपान वायुओं को सम किया करते हैं ; किन्तु यह क्रिया निरापद नहीं है । परन्तु भौंओ के बीच में दृष्टि को स्थिर रखने से अर्थात् दृष्टियोग - साधन से भी , प्राणायाम के उपर्युक्त साधनो को किए बिना ही , कथित दोनों वायुओं के सम होने से प्राणस्पन्दन निरुद्ध होता है ।*
यह साधन निरापद है । अवश्य ही इसकी ठीक और उत्तम युक्ति जानकर अभ्यास करना चाहिए नहीं तो आँखें बिगड़ने का इसमें भी डर है । दृष्टि का अर्थ - नजर निगाह , देखने की शक्ति है , न कि डीम और पुतली । इसके अभ्यास से मन और दृष्टि की एकविन्दुता होती है , चित्तवृति का पूर्ण सिमटाव होता है और इस सिमटाव से , सिमटाव के स्वभावानुकूल मन और चेतन वा सुरत की ऊर्ध्वगति हो जाती है । और ऊर्ध्वगति पर ही समत्व , स्थितप्रज्ञता , सांख्य वा ज्ञाननिष्ठ की पूर्णता वा कर्मयोग की पूर्णता , आत्मदर्शन , आकर्षक व श्रीकृष्ण परमात्मा का दर्शन और ब्रह्मनिर्वाण ; सब - के - सब सम्पूर्णतः अवलम्बित हैं । 

॥ पंचम अध्याय समाप्त ॥

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*  भ्रूमध्यै तारकालोकशान्तावन्तमुपागते । चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥३३ ॥ ( शाण्डिल्योपनिषद् ) 
अर्थ - जब चेतन अथवा सुरत भौंओं के बीच के तारक - लोक ( तारा - मण्डल ) में पहुंचकर स्थिर होती है , तो प्राण की गति बन्द हो जाती है ।

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प्रभु प्रेमियों "श्रीगीता-योग-प्रकाश" नाम्नी पुस्तक के इस लेख पाठ द्वारा हमलोगों ने जाना कि "What is a monk?  Can a householder also be a monk?  How does the wish come to an end?  Why do both numerology and meditation practice complement each other?  What is the relationship between a sanyasayogi and a karmayogi?  Who gets Brahman Nirvana?  What is Yama and Niyam?  What are the symptoms of an alcohol-free yogi?  Why is it not safe to do pranayam?  What is the specialty of vision yoga?. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें। 



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G05 सन्यासी के कर्म और कर्मयोग की विशेषताएं ।। Shrimad Bhagwat Geeta- 5th Chapter G05  सन्यासी के कर्म और कर्मयोग की विशेषताएं  ।। Shrimad Bhagwat Geeta- 5th Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/27/2018 Rating: 5

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