G06 (ख) ध्यान योग का सही स्वरूप और नासाग्र ध्यान का महत्व ।। Bhagavad Gita- 6th Chapter - SatsangdhyanGeeta

Ad1

Ad2

G06 (ख) ध्यान योग का सही स्वरूप और नासाग्र ध्यान का महत्व ।। Bhagavad Gita- 6th Chapter

श्रीगीता-योग-प्रकाश / 6 (ख)

प्रभु प्रेमियों ! श्रीमद्भागवत गीता की महिमा के बारे में धर्मशास्त्रों में लिखा है-"गीताशास्त्रमिदं _ पुण्यं॑ यः पठेत्प्रयतः पुमान्‌।विष्णो: पदमवाप्रोति भयशोकादिवर्जित: ॥ १॥"जो मनुष्य शुद्धचित्त होकर प्रेमपूर्वक इस पवित्र गीताशास्त्रका पाठ करता है, वह भय और शोक आदिसे रहित होकर विष्णुधामको प्राप्त कर लेता है॥१॥"गीताध्ययनशीलस्य प्राणायामपरस्य च।नेव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्मकृतानि च॥२॥"जो मनुष्य सदा गीताका पाठ करनेवाला है तथा प्राणायाममें तत्पर रहता है, उसके इस जन्म और पूर्वजन्ममें किये हुए समस्त पाप नि:सन्देह नष्ट हो जाते हैं॥२॥ 

इस लेख में बताया गया है shreemadbhaagavat geeta ke anusaar dhyaan karane ka sahee samay kya hai? kya striyaan dhyaan abhyaas kar sakatee hai? dhyaan abhyaas karane ka adhikaaree kaun hai? dhyaan abhyaas kaise karana chaahie? shree geeta jee ke anusaar dhyaan karane ke vidhi kya hai? dhyaan abhyaas ke baare mein paakhandayon ka kya kahana hain? kya dhyaan abhyaas ke bina sthitapragyata aur karmayog kee poornata sambhav hai? desh ka vikaas kaise hoga? dhyaan abhyaas ka gupt bhed kya hai? इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- ध्यान योग का सही स्वरूप क्या है, ध्यान योग में नासाग्र कहां है, ध्यान योग विशेष है या अन्य हठयोग, ध्यान का समय, गीता के अनुसार ध्यान, गीता क्या है, संपूर्ण गीता ज्ञान, भगवत गीता का ज्ञान, गीता में ध्यान, ध्यान योग, ध्यान योग के प्रकार, ध्यान के आसन, गीता मोक्ष, ध्यान योग कैसे करे, Dhyan Yog in Hindi, ध्यान कैसे करना है, ध्यान करने के लिए सबसे उपयुक्त आसन कौन सा है, ध्यान आसन क्या है, योग और ध्यान में क्या अंतर है, ध्यान योग के प्रकार, ध्यान योग कैसे करे, ध्यान योग के फायदे, ध्यान योग विधि, ध्यान क्रिया, ध्यान साधना, भगवद गीता ध्यान योग, ध्यान की व्याख्या, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।

श्रीगीता-योग-प्रकाश के अध्याय 6 (क) को पढ़ने के लिए यहां दवाएं। 

ध्यान योग में नासाग्र कहां है ? इस पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

The right form of meditation and the importance of meditation

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं According to Srimad Bhagavat Gita, what is the right time to meditate?  Can women practice meditation?  Who is entitled to practice meditation?  How to practice meditation?  According to Shri Geeta Ji, what is the method of meditation?  What do the hypocrites say about meditation practice?  Is perfection of situated wisdom and karma yoga possible without meditation practice?  How will the country develop?  What is the secret of meditation practice? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-


अध्याय ६

अथ ध्यानयोग 

इस अध्याय का विषय ध्यानयोग है । 

     ....' महात्मा गाँधी ' अनासक्ति - योग ' , अध्याय २ , श्लोक ६ ९ की टिप्पणी में कहते हैं- ' भोगी मनुष्य रात के बारह - एक बजे तक नाच , रंग , खान - पान आदि में अपना समय बिताते हैं और फिर सबेरे सात - आठ बजे तक सोते हैं । संयमी रात के सात - आठ बजे सोकर मध्य रात्रि में उठकर ईश्वर का ध्यान करते हैं । साथ ही भोगी संसार का प्रपंच बढ़ाता है और ईश्वर को भूलता है । उधर संयमी सांसारिक प्रपंचों से अनजान रहता है और ईश्वर का साक्षात्कार करता है । " इन उद्धरणों से यही सिद्ध है कि चाहे कोई कैसा भी कर्मयोगी हो , उसको ध्यानाभ्यास नित्य नियमित रूप से सतत , जीवन - भर अवश्य करना चाहिये ।

     श्रीमद्भगवद्गीता जिस बृहदाकार ग्रंथ ' महाभारत ' के भीष्मपर्व का एक बहुत छोटा , परन्तु अत्यन्त तेजस्वी अंश है , उस महाभारत के शान्ति पर्व ( पूर्वार्द्ध , मोक्षधर्म ) , अध्याय ६७ में श्रीव्यासदेवजी का वाक्य है - ' तीनों काल ( बाह्य मुहूर्त , मध्याह्न और सायंकाल ) योग का अभ्यास करे । जैसे पात्रों का चाहनेवाला मनुष्य पात्रों की रक्षा करता है , उसी प्रकार एकाग्रता का अभ्यास करनेवाला इन्द्रियों के समूह को हृदय - कमल * 
में नियत करके सदैव ध्यान करे और योग से चित्त को भयभीत न करे , उसी का सेवन करे और तद्रूप होकर चलायमान न हो , वह सावधान योगी है । '

     ' इस शान्त - चित्तरूप योग से शूद्र और धर्म जाननेवाली स्त्रियाँ भी परम गति को पाती हैं । परन्तु शान्त - चित्तरूप योग - मार्ग में स्त्री और शूद्र भी अधिकारी है । ' इस बात को विद्वान और बुद्धिमान निश्चय ही समझ सकते हैं कि भगवद्गीता और महाभारत के ज्ञान में एक मेल होना चाहिए । 

     भगवद्गीता के इस अध्याय में ध्यानयोग वा योगाभ्यास करने की जो विधि है , अब सो लिखी जाती है । पवित्र और एकांत स्थान में अपने योग्यतानुसार पवित्र आसनी बिछावे । स्थान न बहुत ऊँचा हो , न बहुत नीचा , समतल हो । वहाँ शरीर , गर्दन तथा मस्तक को सीधा और निश्चल करके बैठे । दिशाओं का देखना छोड़कर नासिकाग्र **
को देखता हुआ , परमात्म - परायण होता हुआ ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहकर , योगी परमात्मदेव का ध्यान करता हुआ बैठे । शरीर , गर्दन और सिर सीधा रखने से मेरुदण्ड सीधा रहेगा । इसके सीधा और स्थिर रहने से श्वास - प्रश्वास की गति धीमी - धीमी होती रहेगी । इस तरह उसकी गति होते रहने के कारण मन की चंचलता कम होगी । यह ध्यानायोग में लाभदायक और सहायक है । परन्तु दृष्टि का लक्ष्य नासाग्र में अवश्य बनाये रखना चाहिए । उपर्युक्त रीति से तनकर बैठने और ध्यानयोग का अभ्यास करने से परमात्मपरायण योगी के मन का चक्र अवश्य बन्द होगा । 

     जिनको परमात्मदेव में आन्तरिक प्रीति और परायणता नहीं , उन्हें केवल बाहरी और आडम्बरी परायणता हो तथा एकान्त में बैठकर न आप इस अभ्यास में अपना समय लगाना चाहें और न दूसरों को इसमें समय लगाने की सलाह देना चाहें तो वह परमात्मदेव की प्राप्ति , स्थितप्रज्ञता और पूर्ण कर्मयोगी होने की उपर्युक्त बातों को मानकर आप अभ्यास करें और दूसरों को भी इसके लिए सलाह दें , कैसे सम्भव हो सकता है ? ' उनको तो केवल कर्मयोग का ही अभ्यास , ध्यान - योगाभ्यास के बिना ही करना है ।

    उपर्युक्त ध्यानाभ्यास के बिना स्थितप्रज्ञता और स्थितप्रज्ञता के बिना कर्मयोग में पूर्णता श्रीमद्भगवद्गीता नहीं बतलाती है । कर्मयोग और ध्यानयोग गीता के अनुकूल करते जाना उत्तम है । न कर्मयोग छोड़ो और न ध्यानयोग । यही श्रेष्ठ विधि परमात्म और मोक्ष - प्राप्ति की तथा संसार के समयानुकूल निज कर्तव्यों के पालन करने की है । 

     मोक्षार्थी को ध्यान और सेवा - कर्म ; दोनों संग - संग अवश्य करना ही पड़ता है । क्योंकि सेवा - कर्म किए बिना संसार में निवास ही नहीं हो सकता है । सेवा - कर्म करने के गीता में बताए हुए ढंग से विचार रख तथा मन पर संयम रखते हुए कर्म - सम्पादन करना उसके लिए नितान्त आवश्यक है । 

     कोई केवल आध्यात्मिक सेवा , कोई केवल आधिभौतिक सेवा और कोई आध्यात्मिक और आधिभौतिक ; दोनों सेवाओं का भार अपनी - अपनी योग्यता तथा देश और काल की माँग के अनुसार अपने - अपने योग्यता तथा देश और काल की माँग के अनुसार अपने - अपने ऊपर धारण और उनका सम्पादन करते हुए तथा मोक्ष - धर्म का पालन करते हुए जीवन व्यतीत किए हैं , करते हैं और करेंगे । ये सब - के - सब कर्मयोगी ही माने जाएँगे । इनमें से कोई यदि यह कहे कि ' मैं जो करता हूँ , वही कर्मयोग है , मैं ही कर्मयोगी हूँ और अन्य का न तो कर्मयोग है और न वे कर्मयोगी हैं , ' तो उनको यह उक्ति घमण्ड से भरी हुई है , वे आत्म - प्रशंसक हैं और यथार्थतः वे कर्मयोगी हैं ही नहीं । वे कर्मयोगी - से केवल दीखते हैं ; किन्तु मुमुक्षु ∆ 
नहीं हैं और मुमुक्षु के गुणों से हीन को कर्मयोग सिद्ध नहीं होगा । 

     ऐसे लोग अपनी यह भी अभिलाषा प्रकट करते हैं कि ' सब लोग स्वधारित कर्मों को छोड़कर मेरे ही विचार का अनुसरण करें , तो देश की सामयिक सेवा होगी , नहीं तो देश खतरे में गिरेगा । ' उनकी यह अभिलाषा अयोग्य है । 

     जबतक किसी देश का आध्यात्मिक स्तर उत्तम और ऊँचा नहीं होगा , तबतक उस देश में सदाचारिता ऊँची और उत्तम नहीं होगी । जबतक सदाचारिता ऐसी नहीं रहेगी , तबतक सामाजिक नीति अच्छी और शान्तिदायक नहीं होगी । बुरी सामाजिक नीति के कारण राजनीति शासन - सँभाल के योग्य हो नहीं सकेगी और उस देश में अशान्ति फैली हुई रहेगी ।

इन बातों को भूलकर देश में केवल धन और भूमि के बँटवारे का प्रयास देश में शान्ति लाने में असफल ही रहेगा । देश की जनता में धन और भूमि के बँटवारे से पहले ही उनकी आध्यात्मिकता का स्तर उत्तम और ऊँचा उठाने का प्रयास कर उनकी सदाचारिता को ऊँचा उठा , उन्हें सत्य , सन्तोष और अहिंसा का पाठ पढ़ा , उसे धन देकर उनका दारिद्र्य और अभाव दूर करना युक्तिसंगत है । आध्यात्मिकता और सदाचारिता से विहीन तथा सत्य , सन्तोष और अहिंसा से दूर रहनेवालों में केवल धन और भूमि की प्राप्ति शान्ति नहीं ला सकती है । इन सद्गुणों से रहितों को कितने धन और ऐश्वर्य से सन्तुष्ट किया जा सकेगा , इसकी माप ही नहीं है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी " विनय - पत्रिका ' में ठीक ही कहा है

द्रव्यहीन दुख लहै दुसह अति , सुख सपनेहुँ नहिं पाये । उभय प्रकार प्रेत पावक ज्यों , धन दुखप्रद श्रुति गाये ॥ 

     जनता के दोनों वर्गों ( धनी और निर्धन ) में आध्यात्मिकता , सदाचारिता , सत्य , सन्तोष और अहिंसा का प्रचार अधिक - से - अधि क करके , उन्हें इन सद्गुणों से युक्त किए बिना केवल धन किसी से लेकर किसी को देने से देश में शान्ति विराजती रहे , असम्भव है । अपने देश में अब स्वराज्य है , परन्तु एक को दूसने से धन माँगकर तीसरे को देने की आवश्यकता क्यों जान पड़ी है और वे इसके लिए घोर प्रयास क्यों कर रहे हैं ? यदि देश के दोनों वर्ग उपर्युक्त सद्गुणों को धारण किए होते , तो उपर्युक्त प्रयासी को कथित प्रयास नहीं करना पड़ता । जनता के दोनों वर्ग आपस में स्वतः एक - दूसरे को सुख पहुँचाकर शान्तिपूर्वक रहते । गोस्वामी तुलसीदासजी के निम्नलिखित सदुपदेशों को पूर्ण विश्वास से मानना चाहिए और कभी नहीं भूलना चाहिए 

 " बिनु सन्तोष न काम नसाहीं । काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।। राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा । थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा । " .... क्रमशः।।


➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

* इसे योगहृदय , कंजाकमल अथवा आज्ञाचक्रान्तर्गत शून्यमण्डल भी कहते हैं । 
' दशेन्द्रिय थाके शून्यते बन्धन ' ( बंगला ' योगसंगीत का पद्य ' ) 

** ध्रुवोर्मध्य ' , ' नासाग्र ' अथवा ' नासिकाग्र ' कहकर ध्यान स्थिर करने के स्थान का संकेत प्राचीन काल से साधक करते चले आ रहे हैं । जैसे - निम्नलिखित कथा में गुप्त धन रखने के स्थान का संकेत है । एक सेठ ने अपने गुप्त धन रखने का स्थान अपने बही - खाते में लिखकर रख दिया था कि अमुक महीने की अमुक तिथि के दिन , दोपहर के समय धन अमुक ताड़ गाछ की फुनगी पर रखा है । जब वह मर गया और उसके बेटे ने जब इसे पढ़ा तो अति आश्चर्यित हुआ कि ताड़ वृक्ष तो अभी वर्तमान है , पर वहाँ तो ध न है नहीं ! और सोचा कि वहाँ धन रह भी सकता है कैसे ?
     उसके पिता के समय का एक वृद्ध मुनीम था । जब लड़के ने इस विषय में उससे पूछा , तब उस वृद्ध ने कहा - ' वह महीना , तिथि और वह समय आने दो तो मैं बतला दूंगा । ' जब वह समय आ गया , तब उस वृद्ध ने उस सेठ के पुत्र को उस स्थान पर ले जाकर ताड़ गाछ की फुनगी की छाया जहाँ पड़ती थी , वह स्थान बता दिया और बोला कि इसी जगह में वह धन गड़ा है । सेठ - पुत्र ने कोड़कर अपना धन निकाल लिया । 
     इस भाँति भ्रुवोर्मध्य , नासान अथवा नासिकान का यर्थाथ स्थान भेदी गुरुमुख भक्त से , जिसे दूसरों को बतला देने की गुरु - आज्ञा हो , जाना जा सकता है । 
"नैन नासिका अग्र है , तहाँ ब्रह्म को वास । अविनाशी विनसै नहीं , हो सहज जोति परकास ।" ( श्रीसूरदासजी ) ( कल्याण के वेदान्त - अंक , पृष्ठ ५८५ से उद्धृत )

∆ कर्मयोग का अभ्यासी मुमुक्षु होता है और कर्मयोग में पारंगत जीवन्मुक्त होता है । गीता अध्याय 6 चित्र 10 स लेख के शेष भाग को पढ़ने के लिए यहां दबाएं । 


इस लेख  का शेष भाग पढ़ने के लिए   यहां दबाएं


प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि श्रीमद्भागवत् गीता के अनुसार ध्यान करने का सही समय क्या है? क्या स्त्रियां ध्यान अभ्यास कर सकती है? ध्यान अभ्यास करने का अधिकारी कौन है? ध्यान अभ्यास कैसे करना चाहिए? श्री गीता जी के अनुसार ध्यान करने के विधि क्या है? ध्यान अभ्यास के बारे में पाखंडयों का क्या कहना हैं? क्या ध्यान अभ्यास के बिना स्थितप्रज्ञता और कर्मयोग की पूर्णता संभव है? देश का विकास कैसे होगा? ध्यान अभ्यास का गुप्त भेद क्या है? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य  देखें।



अगर आप श्रीमद् भागवत गीता या 'श्रीगीता-योग-प्रकाश' पुस्तक के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो    यहां दबाएं।

    सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की पुस्तकें मुफ्त में पाने के लिए शर्त के बारे में जानने के लिए    यहां दबाएं
G06 (ख) ध्यान योग का सही स्वरूप और नासाग्र ध्यान का महत्व ।। Bhagavad Gita- 6th Chapter G06 (ख) ध्यान योग का सही स्वरूप और नासाग्र ध्यान का महत्व ।।  Bhagavad Gita- 6th Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/28/2018 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

प्रभु-प्रेमी पाठको ! ईश्वर प्राप्ति के संबंध में ही चर्चा करते हुए कुछ टिप्पणी भेजें। श्रीमद्भगवद्गीता पर बहुत सारी भ्रांतियां हैं ।उन सभी पर चर्चा किया जा सकता है।
प्लीज नोट इंटर इन कमेंट बॉक्स स्मैम लिंक

Ad

Blogger द्वारा संचालित.