G06 (ग) संत-महात्माओं, ऋषि-मुनियों और धर्म-शास्त्रों की दृष्टि में नासाग्र का वर्णन ।। Gita- 6th Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G06 (ग) संत-महात्माओं, ऋषि-मुनियों और धर्म-शास्त्रों की दृष्टि में नासाग्र का वर्णन ।। Gita- 6th Chapter

श्रीगीता-योग-प्रकाश / 6 (ग)

प्रभु प्रेमियों ! धर्मशास्त्रों में श्रीमद्भागवत गीता की महिमा लिखी है- "मलनिर्मोचन॑ पुंसां . जलस्त्रानं 3 दिने . दिने।सकृद्वीताम्भसि रत्रानं संसारमलनाशनम्‌॥ ३॥" जलमें प्रतिदिन किया हुआ स्नान मनुष्योंक केवल शारीरिक मलका नाश करता है, परंतु गीताज्ञानरूप जलमें एक बार भी किया हुआ स्नान संसार-मलको नष्ट करनेवाला है॥३॥"गीता सुगीता कर्तव्या किमन्येः शास्त्रविस्तरे:।या स्वयं पदानाभस्य मुखपद्दाद्विनि:सृता॥ ४॥" जो साक्षात्‌ कमलनाभ भगवान्‌ विष्णुके मुखकमलसे प्रकट हुई है, उस गीताका ही भलीभाँति गान (अर्थसहित स्वाध्याय) करना चाहिये, अन्य शास्त्रोंके विस्तारसे क्‍या प्रयोजन है॥४॥


इस लेख में बताया गया है santoshajanak sukh kaise praapt hota hai? sthitapragyata kaise praapt hotee hain? mahaatma gaandhee aur lokamaany baal gangaadhar tilak jee ke anusaar naasaagr kya hai? dharm shaastron mein naasaagr ka varnan kis tarah kiya gaya hai? amaadrshti se dhyaan kaise karate hain? santon ke vaaniyon mein drshtiyog ka varnan  kis tarah se kiya gaya hai? इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- ध्यान योग का सही स्वरूप क्या है, ध्यान योग में नासाग्र कहां है, ध्यान योग विशेष है या अन्य हठयोग, ध्यान का समय, गीता के अनुसार ध्यान, गीता क्या है, संपूर्ण गीता ज्ञान, भगवत गीता का ज्ञान, गीता में ध्यान, ध्यान योग, ध्यान योग के प्रकार, ध्यान के आसन, गीता मोक्ष, ध्यान योग कैसे करे, Dhyan Yog in Hindi, ध्यान कैसे करना है, ध्यान करने के लिए सबसे उपयुक्त आसन कौन सा है, ध्यान आसन क्या है, योग और ध्यान में क्या अंतर है, ध्यान योग के प्रकार, ध्यान योग कैसे करे, ध्यान योग के फायदे, ध्यान योग विधि, ध्यान क्रिया, ध्यान साधना, भगवद गीता ध्यान योग, ध्यान की व्याख्या, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें

श्रीगीता-योग-प्रकाश के अध्याय 6 (ख) को पढ़ने के लिए  यहां दवाएं। 

Sant mahatmaon ke Drishti Maina Nasagar kya hai is per vichar vimarsh karte sant log.

Description of Nasagra in the eyes of saints, sages and sages

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं How do you get satisfactory happiness?  How to get situational knowledge?  According to Mahatma Gandhi and Lokmanya Bal Gangadhar Tilak Ji, what is nasal?  How is Nasagra described in the scriptures?  How do you meditate with a blind eye?  How is visualization described in the vines of saints?आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-


अध्याय ६

अथ ध्यानयोग 

इस अध्याय का विषय ध्यानयोग है । 

     ....' बिनु सन्तोष न काम नसाहीं । काम अछत सुख सपनुहुँ नाहीं ॥ राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा । थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा ।।' 

     श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में योग - समाधि से बुद्धि की स्थिरता , समत्व की प्राप्ति , अपने से अपने में ही संतुष्ट रहकर स्थितप्रज्ञ होने का तथा समत्व को ही योग जानने के अनेक उत्तम - उत्तम सदुपदेश दिए गए हैं । किसी प्रकार धन प्राप्त करके उसके द्वारा समता और सन्तोष प्राप्त होगा , यह उपदेश गीता में नहीं है । गीता के अनुकूल पूर्ण कर्मयोगी महापुरुष को समत्वप्राप्त स्थितप्रज्ञ कहा गया है । स्थितप्रज्ञता समाधि - साधन से मिलेगी । इसी हेतु समाधि - साधन की सरलतम अभ्यास - विधि इस छठे अध्याय में बतलाने की पूर्ण आवश्यकता जानकर बतलायी गई है । इस अभ्यासविधि में नासिकान में दृष्टि रखने को कहा गया है । 

महात्मा गाँधीजी ने भृकुटी के बीच के भाग को नासिकाग्र कहा है ।*
लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी ने नाक की नोक को नासिकाग्र कहा है ।**
शाण्डिल्योपनिषद् अध्याय १ में भी नासिकाग्र * में देखना कहा है ; यथा .. 
" विद्वान्समग्रीवशिरोनासाग्रदृग्भ्रूमध्ये शशभृबिम्बं पश्यन्नेत्राभ्याममृतं पिबेत् ॥ ' 

और 

" द्वादशांगुलपर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे । संविदृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पयन्दो निरुध्यते ॥३२ ॥ 
अर्थ - विद्वान गला और सिर को सीधा करके नासिका के आगे दृष्टि रखते हुए , भौंओं के बीच में चन्द्रमा के बिम्ब को देखते हुए , नेत्रों से अमृत का पान करे । जब ज्ञानदृष्टि ( सुरत , चेतनवृत्ति ) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो , तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है ।∆
मण्डलब्राह्मणोपनिषद् , ब्राह्मण २ में इसको शाम्भवी मुद्रा ( दृष्टियोग ) कहा गया है 
तद्दर्शने तिस्रो मूर्तयः अमा प्रतिपत्पूर्णिमा चेति । निमीलितदर्शनममादृष्टिः । अर्धोन्मीलितं प्रतिपत् । सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति । " तत्लक्ष्यं नासाग्रम । " " तदभ्यासान्मनःस्थैर्यम् । ततो वायुस्थैर्यम् । 
अर्थ - उसके देखने के लिए तीन दृष्टियाँ होती है ; अमावस्या , प्रतिपदा और पूर्णिमा । आँख बन्द कर देखना अमादृष्टि है , आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है । उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए । उसके अभ्यास से मन की स्थिरता होती है । इससे वायु स्थिर होता है । 

     कोई - कोई अमादृष्टि से ( आँख बन्द कर ) अभ्यास करने को मना करते हैं , यह कहकर कि इसमें नींद आ जाती है और कोई इस अभ्यास को यह कहकर तिरस्कृत करते हैं कि ' आँख का मूंदना वक का काम है । ' परन्तु मेरा निवेदन यह है कि अमादृष्टि से ध्यानाभ्यास करना विशेष निरापद और सरल है । आँखों को आधी व पूरी खोलकर अभ्यास करने से आँखों में विशेष कष्ट अवश्य ही होगा । इसलिए यह न सरल है और न निरापद ही कहा जा सकता है । फिर भी इनसे जो अभ्यास करना चाहते हैं , वे करें । परन्तु उनको नहीं चाहिए कि अमादृष्टि द्वारा अभ्यास का तिरस्कार करते हुए वे दूसरों को इसके द्वारा अभ्यास करने से मना करें । भगवान बुद्ध की ध्यानावस्थित प्रतिमाओं के दर्शन से विदित होता है कि वे आँखों को बन्द करके ध्यानाभ्यास करते थे । श्रीमद्भागवत में लिखा कि राजा परीक्षित ने आँख बन्द किए ध्यानावस्थित शमीक मुनि के गले में मरा हुआ साँप पहनाया था ( स्कन्ध १ , अ ० १८ , श्लोक २५-३९ )

कबीर साहब , गुरु नानक साहब तथा पलटू साहब आदि संतों की वाणियों में आँखें बन्द कर ध्यान करने की विधि लिखी है । 

नयनों की करि कोठरी , पुतली पलंग बिछाय । पलकों की चिक डारिके , पिय को लिया रिझाय ॥ आँख कान मुख बन्द कराओ , अनहद झिंगा शब्द सुनाओ । दोनों तिल एक तार मिलाओ , तब देखो गुलजारा गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं , जीव तो अपनी बुद्धि ठाने । गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भव सिंधु तें , फेरि लै सुक्ख के सिधु आन । बन्द कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै , घट का पाट गुरुदेव खोले । कहै कबीर तू देख संसार में , गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै ॥ ( कबीर साहब ) 
तीन बन्द# लगाय कर , सुन अनहद टंकोर । नानक सुन्न समाधि में , नहीं साँझ नहिं भोर । ( गुरु नानक ) 

आँख मूंदि के ध्यान लावै , द्वार दसवाँ खोलना ।° ( पलटू साहब )

दोउ लूँदि के नैन अन्दर देखा , नहिं चाँद सुरज दिन राति है रे । ( यारी साहब )

कबीर साहब ने सहज समाधि का वर्णन करते हुए एक पद्य में कहा है कि 

आँखि न मूंदौं कान न रूधौं , तनिक कष्ट नहिं धारौं । खुले नयन पहिचानौं हँसि हँसि , सुन्दर रूप निहारौं ।। 

     यह दशा अवश्य ही सहज समाधि प्राप्त कर लेने पर होगी । परन्तु जबतक सहज समाधि नहीं हुई है , तबतक ‘ आँखि न मूंदौं , कान न रूधौं ' नहीं । साधनारम्भ में तो कबीर साहब के वाक्यों में जैसा वर्णन है , आँख और कान बन्द करने ही पड़ेंगे । 

     साधन के अन्त में सहज समाधि प्राप्त होगी और आँख - कान बन्द करने की आवश्यकता नहीं रहेगी । परन्तु साधनारम्भ से ही आँख - कान न बन्द करना , कबीर साहब नहीं कहते हैं । 

     श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा है - दिशाओं को नहीं देखते हुए नासिकाग्र में देखो । यहाँ विचारणीय है कि दिशाओं को नहीं देखने के लिए आँखों को बन्द करना होगा अथवा उन्हें खोलकर देखना होगा ? चारो सीधी ओर , उनके चारो कोने और ऊपर तथा नीचे - ये दस दिशाएँ हैं । आँखों को खोलकर देखने से कोई - न - कोई दिशा अवश्य देखी जाएगी । परन्तु आँखों को बन्द कर और बाहर के ख्यालों को छोड़कर देखने से दिशाओं का देखना छूटेगा । 

     भृकुटियों के बीच में वा नाक के निचले भाग पर देखने से आँखों में कष्ट तो होगा ही और विशेष बात यह होगी कि भृकुटियों के बीच का वा नाक के निचले नोंक - भाग का स्थान प्रत्यक्ष देखा जा सकेगा वा आँख बन्द कर केवल मानसिक दृष्टि से उन स्थानों पर देखने से उन स्थानों के मनोमय रूप देखे जायेंगे । उन स्थानों के जितने - जितने भाग देखे जायेंगे , वे कुछ - न - कुछ परिमाण वाले अवश्य देखे जायेंगे । और उन स्थानों पर यदि इष्टदेव की स्थूल मूर्ति ख्याल में बनाकर देखी जायगी , तो भी मूर्ति के विस्तार का परिमाण रहेगा । इस तरह किसी परिमाण में मन और दृष्टि को रखने से समाधि प्राप्त करने की ऊर्ध्वगति नहीं हो सकेगी । इसके लिये पूर्ण सिमटाव चाहिये । यह बिना एकविन्दुता के पद्य गी । । नहीं हो सकेगा । विन्दु - ध्यान परम ध्यान है

 " तेजोविन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ॥१ ॥ ( तेजोविन्दूपनिषद् ) 
अर्थ - हृदयस्थित विश्वात्म तेजस् - स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है ||..... क्रमशः।।


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* अनासक्तियोग , अध्या ६ , श्लोक १३ , १४ के नीचे टिप्पणी में तथा गीता - रहस्य , गीता - अध्याय ६ , श्लोक १३ देखें ।

* * इसका सच्चा रहस्य अच्दे अभ्यासी और सच्चे सद्गरु से जानना चाहिए ; यह गुरुगम्य है ।

 ∆ नासाग्र का पता जाबालोपनिषद् के इस प्रसंग के पढ़ने से लगता है । 
"अथ हैनमत्रिः पप्रच्छ याज्ञवल्कयं । य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा तं कथमहं विजानीयामिति ।।

सहोवाच याज्ञवल्क्य: सो$विमुक्त उपास्यो य एषो$नन्तोव्यक्त आत्मा सोऽविमुक्ते प्रतिष्ठित इति ॥ सोऽविमुक्तः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति । वरणायां नाश्यां च मध्ये प्रतिष्ठित इति ॥ का वै वरणा का च नाशीति । सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति तेन वरणा भवति ॥ सर्वानिन्द्रियकृतान्यापान्नाशयतीति तेन नाशी भवतीति । कतमं चास्य स्थानं भवतीति । भ्रुवोणिस्य च यः सन्धिः स एष द्योलॊकस्य परस्य च सन्धिर्भवतीति । एतद्वै सन्धि सन्ध्यां ब्रह्मविद् उपासत इति ॥२ ॥
अर्थ - अनि ऋषि ने इसके बाद याज्ञवल्क्य से पूछा - ' जो ऐसा अनन्त अव्यक्त आत्मा है , उसको हम कैसे जानें ? ' याज्ञवल्क्य ने कहा - ' वह अविमुक्त आत्मा ही उपासना योग्य है । वह अनन्त अव्यक्त आत्मा अविमुक्त में प्रतिष्ठित है । ' वह अविमुक्त कहाँ प्रतिष्ठित है ? वह वरणा और नाशी के बीच में प्रतिष्ठित है । वरणा और नाशी क्या है ? सब इन्द्रियकृत पापों को नाश करता है , वही नाशी कहलाता है । कहाँ वह स्थान है ? दोनों भौंओं का और नासिका का जो मिलन - स्थान है ( वहीं वह स्थान है ) , वह धुलोंक और परलोक का भी मिलन - स्थान है । इस संधिस्थान में ब्रह्मज्ञानी अपनी संध्या की उपासना करते हैं अर्थात् वहाँ पर ध्यान करके ब्रह्म - साक्षात्कार की चेष्टा करते हैं ॥२ ॥ 

और सूरदासजी कहते हैं 
नैन नासिका अग्र है , तहाँ ब्रह्म को वास । अविनासी विनसै नहीं , हो सहज जोति परकास । ( कल्याण - वेदान्त अंक , १ ९९ ३ वि ० सं ० , पृ ० ५८५ से उद्धत ) 

# आँख , कान और मुँह बन्द : तीन बन्द । हठयोग की क्रियाओं में मूल बन्ध , उड्डीयान बन्ध और जालंधर बन्ध - तीन बन्ध हैं , सो ये तीन बन्ध नहीं है । 

° पलटू साहब की बानी , भाग १ 

द्रष्टव्य-- रेखांकित बानी में बिंदु ध्यान के संकेत हैं


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