श्री-गीता-योग-प्रकाश / 02 (क)
प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।
इस पोस्ट में विषाद या चिंता से होने वाले नुकसानों का वर्णन, चिंता मुक्त होने के उपायों का वर्णन, सभी लोग कभी-न-कभी अवश्य मरेंगे, आत्मा की अमरता और स्थिरता का वर्णन, शरीर कितने प्रकार का है, वार्य और अनिवार्य हिंसा का वर्णन, शांख्य ज्ञान का वर्णन, सुख-दुख, जीवन-मरण का यथार्थ चित्रण आदि बातों के बारे में बताया गया है। इसके साथ-ही-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- सांख्य ज्ञान क्या है? सांख्य ज्ञान से संबंधित भ्रांतियों को दूर करने की युक्ति, श्री संतमत विचार, श्रीमद्भागवत गीता, ज्ञान योग, श्रीमद्भगवद्गीता, gyanvani, aaradhna, श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 हिंदी- हरे कृष्णा, सनातन धर्म श्रीमद्भागवत्गीता चैप्टर 2 इन हिंदी, अध्याय कर्म जिज्ञासा, श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2, श्रीमद्भगवद्गीता Vol.2, भागवत गीता सार पार्ट 2, श्रीमद्भागवत्गीता अध्याय 2 का सार, आपका जीवन बदल देगा भगवान श्री कृष्ण, भागवत गीता सार, भगवत गीता के ये श्लोक, श्रीमद्भगवद्गीता पार्ट 2, भागवत गीता संस्कृत रिएक्शन विथ संस्कृत टैक्स, श्रीमद् द्वितीय अध्याय वैदिक, सांख्य योग-भागवत गीता-द्वितीय, भागवत गीता का दूसरा अध्याय, गीता द्वितीय अध्याय, आदि सवालों की जानकारी प्राप्त करने के पहले आइए गुरु महाराज का दर्शन करें।
'श्रीगीता-योग-प्रकाश' के प्रथम अध्याय में विषाद योग का वर्णन हुआ है उसे पाठ करने के लिए यहां दवाएं।
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज श्री गीता योग प्रकाश में आगे लिखते हैं vishaad ya chinta se hone vaale nukasaanon ka varnan, chinta mukt hone ke upaayon ka varnan, sabhee log kabhee-na-kabhee avashy marenge, aatma kee amarata aur sthirata ka varnan, shareer kitane prakaar ka hai, vaary aur anivaary hinsa ka varnan, shaankhy gyaan ka varnan, sukh-dukh, jeevan-maran ka yathaarth chitran इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के लिए आइए गुरु महाराज लिखित 'श्रीगीता-योग-प्रकाश' के प्रथम अध्याय का पाठ करें-
श्रीगीता-योग-प्रकाश अध्याय २ अथ सांख्ययोग
इस अध्याय का विषय सांख्य और योगवाद है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - हे अर्जुन ! इस विषम समय में यह मोह तुमको कहाँ से आ गया ? आर्य या श्रेष्ठ पुरुषों के अयोग्य , अधोगति को ले जानेवाला तथा अपयशदायक यह मोह तुमको हुआ है । तुम पण्डित - सदृश बोलते तो हो ; परन्तु अकरणीय शोक करते हो ।
मेरे और तुम्हारे* सहित अभी जो लोग हैं , कभी नहीं थे वा भविष्य में सब - के - सब नहीं रहेंगे , सो नहीं है । जैसे शरीरधारी को बाल , युवा तथा बुढ़ापा अवस्थाएँ आती हैं , उसी भाँति उसको दूसरे - दूसरे शरीर भी मिलते रहते हैं । सर्वव्यापी तथा सब देहों में देही आत्मा अविनाशी , पुरातन , नित्य , अव्यय , अजन्मा , न मरनेवाला और न मारनेवाला है । सब शरीरों में शरीरी आत्मा सब प्रकार से अवध्य और अनाशी है । जैसे पुराने - पुराने वस्त्रों को छोड़ - छोड़कर नये - नये वस्त्र देह पर पहने जाते हैं , उसी भाँति देहधारी पुरानी देह को छोड़कर नयी देह धारण करता है । **ज्ञानियों ने यह सिद्धान्त स्थिर कर दिया है कि असत् का रहना हो नहीं सकता है और सत् का नाश नहीं हो सकता है । देही आत्मा सत् , सर्वव्यापी , अव्यक्त , अचिन्त्य , विकार - रहित , उपाधि - रहित , स्थिर , अचल और सनातन है ।*** परन्तु देह का नाश होना निश्चित है । जन्म लेनेवालों के लिए मृत्यु और मरनेवालों के लिए जन्म अनिवार्य है । अनिवार्य के लिए शोक करना उचित नहीं है । धर्म - युद्ध में युद्ध करना कर्तव्य - पालन करना है । ∆ यदि युद्ध में मारे जाओगे , तो तुम्हें स्वर्ग£ मिलेगा और जीतोगे तो संसार में कीर्ति प्राप्त करोगे । इसलिए तुम युद्ध करो । शीत , उष्ण , सुख और दुःख आदि इन्द्रियों के विषय अनित्य हैं , इन्हें सहन करो । इनमें जो बुद्धिमान सम रहता है , वही मोक्ष के योग्य बनता है ।~ समता प्राप्त किए हुए रहकर युद्ध करने से तुमको पाप नहीं लगेगा । #
सांख्य ज्ञान द्वारा इस प्रकार अर्जुन को समझाकर भगवान ने पुनः उसे योगवाद के द्वारा निम्नोक्त रीति से समझाया । ##
一ㅡㅡㅡㅡㅡㅡㅡㅡㅡㅡㅡㅡ––ㅡㅡㅡㅡㅡㅡㅡㅡㅡ
* यहाँ ' मेरे और तुम्हारे ' शरीर को नहीं , बल्कि शरीरी ( आत्मा ) को कहा गया है ।
** जड़ शरीर चार प्रकार के हैं- ( १ ) स्थूल , ( २ ) सूक्ष्म ( लिंग ) , ( ३ ) कारण और ( ४ ) महाकारण । ये एक के अन्दर एक लिखित क्रम से हैं । साधारण मृत्यु में केवल स्थूल छूटता है । लिंग के सहित कारण और महाकारण रहते ही हैं । जैसे जीवन - काल में ऊपर स्थूल शरीर रहता है , इसी भाँति साधारण मृत्यु होने पर ऊपर सूक्ष्म शरीर रहता है और पुनर्जन्म होने पर उसी सूक्ष्म पर दूसरा नया स्थूल शरीर धारण होता है । पूर्ण योगी के सब शरीर छूट जाते हैं । अत : उनका पुनर्जन्म नहीं होता है ।
*** ऐसी आत्मा एक ही हो सकती है । अनेक आत्माओं में अचलता और सर्वव्यापकता का गुण नहीं हो सकता है । यदि यह कहा जाय कि असंख्य आत्माएँ सृष्टि में सर्वत्र पसरी हुई हैं , इसीलिए आत्मा सर्वव्यापक और अनेक हैं , तो बीच - बीच में अल्प - अल्प भी शून्य के बिना एक से अधिक का ज्ञान नहीं हो सकता है । अतएव अनेकत्व में सर्वव्यापकत्व नहीं हो सकता है । वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥१० ॥ ( कृ ० य ० , कठो ० , अ ० २ , व ०२ ) अर्थ - जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के हो रहा है , उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है ।
∆ यह अनिवार्य हिंसा है , जैसे कृषकों के लिए कृषिकर्म की हिंसा ।
£ भगवान यह नहीं कहते हैं कि मेरे सामने ( क्योंकि युद्ध मैं तुम्हारे साथ ही हूँ ) युद्ध में मारे जाओगे , तो गोलोक या बैकुण्ठ जाओगे या तुम्हारी मुक्ति ही हो जायेगी ।
~ व्यक्त रूप से भगवान अर्जुन को दर्शन दे ही रहे थे ; परन्तु उसको समता प्राप्त नहीं थी । अतएव कहना पड़ता है कि ऐसे दर्शनों से न समता प्राप्त होती है , न कोई मोक्ष के योग्य होता है ।
# महाभारत के स्वर्गारोहण पर्व , अध्याय ३ , श्लोक १७ में है - द्रौपदी - सहित पाँचो भाई पाण्डव कुछ काल तक के लिए नरक में जाकर पाप के फल से छूटे थे । वस्तुतः अर्जुन ने समता प्राप्त किए बिना ही युद्ध अथवा कर्म किया था । केवल व्यक्त रूप के दर्शन कर पाप से नहीं छूटा जा सकता है ।
## इसका कारण यह है कि योगाभ्यास के बिना मोक्षदायक पूर्ण ज्ञान नहीं होता है । इसका स्पष्टीकरण योगतत्त्वोपनिषद् और योगशिखोपनिषद् में दृढ़ता से किया गया है ; यथा योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम् । योगो हि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।। तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ॥ ( योगतत्त्वोपनिषद् ) अर्थ - योगहीन ज्ञान कैसे मोक्षप्रद हो सकता है ? ( अर्थात नहीं हो सकता ) यह निश्चित है । ज्ञानहीन योग भी मोक्षकार्य में समर्थ नहीं हो सकता । अतः मुमुक्षु को चाहिए कि दृढ़ता के साथ ज्ञान और योग , दोनों का अभ्यास करे ।
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः । योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि । तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ॥ ( योगशिखोपनिषद् )अर्थ - योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है , उसी तरह ज्ञान - रहित योग भी मोक्षकार्य में समर्थ नहीं हो सकता । इसलिये ज्ञान और योग ; दोनों का दृढ़ता के साथ अभ्यास मुमुक्षु को करना चाहिये । और गो ० तुलसीदास जी ने भी कहा है चौ०- धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना । मोक्ष - प्रद वेद बखाना ॥
... क्रमशः।
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प्रभु प्रेमियों "श्रीगीता-योग-प्रकाश" नाम्नी पुस्तक के इस लेख पाठ द्वारा हमलोगों ने जाना कि "A description of the harms caused by depression or anxiety, a description of ways to be free from anxiety, that all people will die sometime, a description of the immortality and stability of the soul, a description of how the body is, a description of violence and compulsory violence, Sankhya Description of knowledge, true depiction of happiness, sorrow, life and death. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त लेख का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें।
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G02 (क) श्रीकृष्ण का सांख्यज्ञान आपका जीवन बदल देगा ।। Bhagwat Geeta- 2nd Chapter
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
1/15/2018
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कोई टिप्पणी नहीं:
प्रभु-प्रेमी पाठको ! ईश्वर प्राप्ति के संबंध में ही चर्चा करते हुए कुछ टिप्पणी भेजें। श्रीमद्भगवद्गीता पर बहुत सारी भ्रांतियां हैं ।उन सभी पर चर्चा किया जा सकता है।
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