G03 महर्षि के अनुसार कर्मयोग का सिद्धांत, कर्म का प्रकार और आत्मरत होना क्या है ।। Gita- 3rd Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G03 महर्षि के अनुसार कर्मयोग का सिद्धांत, कर्म का प्रकार और आत्मरत होना क्या है ।। Gita- 3rd Chapter

श्री-गीता-योग-प्रकाश / 03

प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।

इस लेख में बताया गया है  कर्मयोग किसे कहते हैं, कर्मयोग की महिमा, कर्म क्या है, कर्म योग से कैसे सिद्धि मिलती है, आत्मरत होना क्या है, आत्मरत होना आवश्यक क्यों है, इंद्रिय मन बुद्धि से आत्मा की श्रेष्ठता इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- महर्षि पतंजलि के अनुसार कर्म क्या है, निष्काम कर्म श्लोक, गीता में ज्ञान योग, निष्काम कर्मयोग क्या है, अनासक्त कर्मयोग, महर्षि पतंजलि के अनुसार कर्म क्या है, कर्मयोग की विशेषताएं, कर्मयोग का सिद्धांत, मनुष्य का कर्म क्या है, गीता के अनुसार कर्म कितने प्रकार के होते हैं, कर्म क्या है गीता, कर्मयोग मराठी, कर्म के प्रकार, कर्मयोग भगवद गीता, निष्काम कर्म श्लोक, निष्काम कर्मयोग भगवद गीता, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।

श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 2 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं

कर्म योग के सिद्धांतों पर चर्चा करते हुए भगवान श्री कृष्ण और सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

maharshi ke anusaar karmayog ka siddhaant, karm ka prakaar aur aatmarat hona kya hai.

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं- According to Maharishi, what is the principle of karma yoga, type of karma and being self-centered. karmayog kise kahate hain, karmayog kee mahima, karm kya hai, karm yog se kaise siddhi milatee hai, aatmarat hona kya hai, aatmarat hona aavashyak kyon hai, indriy man buddhi se aatma kee shreshthata आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-


श्रीगीता-योग-प्रकाश
अध्याय 3
अथ कर्मयोग

 इस अध्याय का विषय कर्मयोग है ।

     फल पाने की इच्छा से बचा रहकर तथा मोक्ष पाने का अधिकारी अपने को बनाए रखकर , जीवन - भर कर्म करते रहना कर्मयोग है । प्राणी स्वभावतः ही कर्म करने में लगा रहता है । कर्म किए बिना कभी कोई रह नहीं सकता है । बाह्य इन्द्रियों को रोककर मन से इन्द्रिय - व्यापार करना मिथ्याचार वा दम्भ है ; परन्तु मनोनिग्रह के साधनाभ्यास में यदि मन बहक जाय , तो बाह्य इन्द्रियों को उस बहक में नहीं दौड़ने देना ही उत्तम है । क्योंकि बाह्य इन्द्रिय के रुकते - रुकते मन भी रुकने लगता है । इसलिए 
मन जाय तो जाने दे , तू मत जाय शरीर । पाँचो आत्मा वश करे , कह गये दास कबीर ॥ 

इससे यह नहीं कि इस भाँति कोई स्वाभाविक और कर्तव्य कर्मों के करने से छूट सकता है । उचित कर्म करना ही उत्तम है , न कि उन्हें छोड़ देना ; क्योंकि संसार के कर्तव्यों और परहितार्थ कर्मों को छोड़ने से सांसारिक हानि उमड़ आएगी और जनता में दुःख फैल जाएगा । इस हेतु कर्मयोग का साधन करते हुए , कर्तव्य करते रहना परमोचित है । राजर्षि जनक आदि ने भी इसी भाँति कर्मयोग से ही सिद्धि पायी है । कर्मयोग की साधना इस भाँति करना कि मन से इन्द्रियों को नियम में रखते हुए , कर्मफल में अनासक्त रहकर कर्मेन्द्रियों से कर्म करना तथा कर्मयोग के सहित त्रय काल - संध्या के विशेष अभ्यास से साधक आत्मा में रत हो सके । त्रय काल - संध्या के अभ्यास को छोड़कर केवल कर्मयोग का अभ्यासी बनने से कोई आत्मरत होने में सफल नहीं हो सकेगा । इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण भी संध्या किया करते थे ।
बाहो मुहूर्ते उत्थाय वायुपस्पृश्य माधवः । दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ।। ( श्रीमद्भागवत , स्कन्ध १० उत्तरार्द्ध , अ ०७० )

आत्मरत नहीं होने से न काम - रूप दुर्जय शत्रु का संहार होगा , न कर्मयोग की सिद्धि ही होगी । आत्मा में संलग्न या रत रहने का अभ्यास करते हुए रहकर कर्म करना और अध्यात्म - वृत्ति रखकर ईश्वरार्पण बुद्धि से ममता , राग तथा आसक्ति से रहित होकर कर्म करना । रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द ; पाँचो विषयों से ज्ञानेन्द्रियाँ उच्च हैं । इन इन्द्रियों से मन उच्च है , मन से बुद्धि उच्च है और बुद्धि से आत्मा उच्च है । आत्मा को पहचानने से मन वश में होगा और तभी काम - रूप दुर्जय शत्रु का संहार होगा । 

॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥ 


इस लेख के बाद का चतुर्थ अध्याय को पढ़ने के लिए    यहां दबाएं


प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि Who is called Karmayoga, what is the glory of Karmayoga, what is Karma, how is Karma Yoga attained accomplishment, what is self-reliance, why it is necessary to be self-centered, the superiority of the soul with the sense mind। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य  देखें।



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G03 महर्षि के अनुसार कर्मयोग का सिद्धांत, कर्म का प्रकार और आत्मरत होना क्या है ।। Gita- 3rd Chapter G03  महर्षि के अनुसार कर्मयोग का सिद्धांत, कर्म का प्रकार और आत्मरत होना क्या है ।।  Gita- 3rd Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 1/30/2018 Rating: 5

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