G07 (क) ज्ञान विज्ञान जीव माया व्रह्म इत्यादि क्या है? कौन ईश्वर को पाता है ।। ShriGita- 7th Chapter
श्रीगीता-योग-प्रकाश / 07 (क)
प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणीी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।
इसमें बताया गया है कि ज्ञान विज्ञान योग क्या है? निम्न कोटि की प्रकृति और परा प्रकृति क्या है? सूर्य और चंद्रमा में तेज कहां से आता है? सात्विक, राजस और तामस भाव कहां से उत्पन्न हुए हैं? सांसारिक लोग किन गुणों से मोहित होते हैं? मोह से छूटने का उपाय क्या है? भक्त कितने प्रकार के होते हैं? परमात्मा को कौन-सा भक्त अधिक प्यारा है? कौन परमात्मा को पाता है? भगवान श्री कृष्ण का शरीर दिव्य शरीर था या साधारण लोगों के तरह का शरीर? श्री गीता जी में भगवान ने अपने को किन शब्दों से जानाया है? इत्यादि बातें इन बातों के अलावा आप निम्नांकित सवालों के जवाबों में से कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- ज्ञान-विज्ञान क्या है? जड और चेतना क्या है? त्रिगुण क्या है? ईश्वर को कैसे पाया जाता है? भक्त कौन है और कितने तरह के होते हैं? देवता कौन है और कितनी तरह के होते हैं?गीता क्या है, श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 7, ज्ञान विज्ञान Book, विज्ञान किसे कहते हैंं, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।
इस अध्याय के पहले वाले अध्याय 6 को पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
What is Jnana Vigyan Maya Vrahma etc.? Who finds god
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं What is knowledge science yoga? What is the nature and trans nature of the lower order? Where does the Sun and Moon come from? Where did the Satvik, Rajas and Tamas expressions originate? What qualities do worldly people fascinate? What is the way to get rid of attachment? What are the types of devotees? Which devotee is more fond of God? Who finds God? Was the body of Lord Krishna a divine body or a body like ordinary people? With what words has God made himself known in Shri Geeta? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-
अध्याय 7
अथ ज्ञान - विज्ञानयोग
इस अध्याय का विषय ज्ञान - विज्ञानयोग है ।
इसमें भगवान परमात्मा के नित्य , अविनाशी और मायातीत स्वरूप का वर्णन है । पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , मन , बुद्धि और अहंकार ; ये आठ उनकी अपरा ( निम्नकोटि की ) प्रकृति * है । इससे ऊँची , जगत् को धारण करनेवाली उनकी परा प्रकृति* है, जो जीव - रूप है अर्थात् चेतन है । परमात्मा भगवान की इन्हीं दोनों प्रकृतियों से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं । सब सृष्टि की उत्पत्ति और लय के कारण परमात्मा हैं और सारी रचना उनमें गुंथी हुई है । जल में रस ; सूर्य , चन्द्र और अग्नि में तेज , वेदों में ॐकार , आकाश में शब्द , पुरुषों में पराक्रम , पृथ्वी में गन्ध , प्राणी - मात्र का जीवन , तपस्वी का तप , बुद्धिमान की बुद्धि , तेजस्वी का तेज , बलवान का काम - रागरहित बल और प्राणियों में धर्म का अविरोधी काम परमात्मा हैं । सात्त्विक , राजस और तामस , जो सब भाव हैं , सब परमात्मा से उपजे हुए हैं । परमात्मा में वे सब हैं ; परन्तु परमात्मा उनमें नहीं हैं । इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा उन भावों के अवलम्ब से नहीं रहते हैं । उन भावों से वे निर्लिप्त रहते हैं ; परन्तु वे भाव उनके आधार पर रहते हैं । सांसारिक लोग त्रैगुणी भावों से मोहित रहते हैं । इसलिए वे मोहित हुए लोग त्रैगुणी से उच्च और अविनाशी परमात्मा को नहीं पहचानते हैं । परमात्मा की सत् , रज और तम वाली त्रैगुणी माया को तरना कठिन है । परन्तु जो परमात्मा की शरण लेते हैं , वे इसको तर जाते हैं । जो परमात्मा की शरण नहीं लेते हैं , वे आसुरी भाववाले मूढ़ , अधम और दुराचारी हैं । माया उनके ज्ञान को हर लेती है ।
भक्त चार प्रकार के होते हैं - ज्ञानी , जिज्ञासु , आर्त और अर्थार्थी । ये सदाचारी होते हैं । इनमें ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ हैं , जो परमात्मा को प्रिय हैं । ये सब भक्त अच्छे हैं, परन्तु ज्ञानी तो परमात्मा की आत्मा ही हैं । क्योंकि वह योगी-ज्ञानी भक्त जानता है कि परमात्मा - प्राप्ति से ऊँची गति दूसरी नहीं है । बहुत जन्मों के अन्त में वह ज्ञानी भक्त परमात्मा को पाता है । सब वासुदेव** मय है -- ऐसा ज्ञानी महात्मा बड़ा दुर्लभ है । अनेक कामनाओं से हरी गई बुद्धिवाले , परमात्मा से भिन्न अनेक देवों की शरण जाते हैं । उन स्वल्प बुद्धिवालों को नाशवान फल मिलता है । देव और भूत आदि , जिनको जो भजते हैं , वे उनके पास जाते हैं और परमात्मा के भजनेवाले परमात्मा को ही पाकर अनाशी शान्तिमय सुखफल को सदा के लिए प्राप्त करते हैं । परमात्मदेव का परम स्वरूप इन्द्रियों से नहीं जाननेयोग्य , अनुपम और अविनाशी है । बुद्धिहीन लोग उनको इन्द्रियगम्य मानते हैं । अपनी योगमाया से ढंके हुए परमात्मदेव सबके लिए प्रकट नहीं हैं । मूढ़ सांसारिक लोग उन अजन्मा ( जिनका जन्म न हो ) और अविनाशी को भली - भाँति नहीं पहचानते । इस ज्ञान - विज्ञान अध्याय के अन्त में यह लिख देना उचित जंचता है कि सबमें परमात्मा हैं , यह ज्ञान है और सब परमात्ममय है ( जैसे जेवर धातुमय है ) , यह विज्ञान है ।
' मयि ' , ' मत्तः ' ' अहम् अस्मि ' , ' माम् ' और ' मम ' ( मुझमें , मुझसे , मैं हूँ , मुझे और मेरा ) आदि शब्दों से श्रीभगवान ने अपने को ज्ञात कराया है और उन्होंने अपने को अज , अविनाशी , इन्द्रियातीत बतलाया है । श्रीमद्भागवत , स्कन्ध १० , अध्याय २ में ये श्लोक हैं---
"भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयंकरः । आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः ॥ १६ ॥
स बिभ्रत पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः । दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह ॥ १७ ॥
ततो जगन्मंगलमच्युतांश समाहितं शूरसुतेन देवी । दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं मनस्तः ॥ १८ ॥ सा देवकी सर्वजगन्निवासनिवासभूता नितरां न रेजे । भोजेन्द्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती ॥ १९ ॥"
और
"निशीथे तमउद्भूते जायमाने जनार्दने । देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ॥ ८ ॥" ( श्रीमद्भागवत , स्क ० १० , अ ० ३ )
अर्थ - भगवान भक्तों को अभय करनेवाले हैं । वे सर्वत्र सब रूप में हैं , उन्हें आना - जाना नहीं है । इसलिए वे वसुदेवजी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गये ॥ १६ ॥ उसमें विद्यमान रहने पर भी अपने को अव्यक्त से व्यक्त कर दिया । भगवान की ज्योति को धारण करने के कारण वसुदेवजी सूर्य के समान तेजस्वी हो गये , उन्हें देखकर लोगों की आँखें चौंधिया जाती थीं । कोई भी अपने बल , वाणी या प्रभाव से उन्हें दबा नहीं सकता था ॥ १७ ॥भगवान के उस ज्योतिर्मय अंश को , जो जगत् का परम मंगल करनेवाला है , वसुदेवजी के द्वारा आधान किये जाने पर देवी देवकी ने ग्रहण किया । जैसे पूर्व दिशा चन्द्रदेव को धारण करती है , वैसे ही शुद्ध सत्त्व से सम्पन्न देवी देवकी ने विशुद्ध मन से सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान को धारण किया ॥१८ ॥ भगवान सारे जगत् के निवासस्थान हैं । देवकी उनका भी निवासस्थान बन गई ; परन्तु घड़े आदि के भीतर बन्द किए हुए दीपक का और अपनी विद्या दूसरे को न देनेवाले ज्ञानखल की श्रेष्ठ विद्या का प्रकाश जैसे चारो ओर नहीं फैलता , वैसे ही कंस के कारागार में बन्द देवकी की भी उतनी शोभा नहीं हुई ॥ १९ ॥
जनार्दन के अवतार का समय निशींथ था । चारो ओर अंधकार का साम्राज्य था । उसी समय भगवान विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए ॥ ८ ॥
इन श्लोकों से भगवान का जन्म लेना पूर्ण रूप से विदित होता है ।
ययाहरद् भुवो भारं तां तनुं विजहावजः । कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितुः समम् ॥३४ ॥
यथा मत्स्यादि रूपाणि धत्ते जह्याद् यथा नटः । भूभारः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम् ॥३५ ॥ ( श्रीमद्भागवत , स्क ० १ , अ ० १५ )
अर्थ - भगवान कृष्ण ने लोक - दृष्टि में जिस यादव - शरीर से पृथ्वी का भार उतारा था , उसका वैसे ही परित्याग कर दिया , जैसे कोई काँटे से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे । भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान हैं ॥३४ ॥
जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और उनका त्याग कर देते हैं , वैसे ही उन्होंने जिस यादव - शरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था , उसका भी त्याग कर दिया ॥३५ ॥
महाभारत , मूसलपर्व के निम्नलिखित श्लोकों से भी भगवान श्रीकृष्ण का शरीर त्यागना और उसका जलाया जाना विदित है । जैसे--- ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः । अन्विष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभिः ॥ ( अध्याय ७ , श्लोक ३१ ) अर्थ - अर्जुन ने वासुदेव और बलदेवजी के शरीरों को खोजकर सत्य और ठीक कर्म करनेवाले आप्त पुरुषों के द्वारा उनका दाह कराया ॥३१ ॥
यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पंकजलोचनः । स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः । ( अध्याय ८ , श्लोक ८ )
अर्थ - अर्जुन बोले कि जिसकी देह - श्री बादल - सदृश और दोनों नेत्र विशाल कमलदल के तुल्य थे , उस श्रीमान् कृष्ण ने राम के सहित शरीर छोड़कर सुरलोक गमन किया है ॥ ८ ॥
श्रीमद्भागवत , स्कन्ध ११ , अध्याय ३१ , श्लोक ६ में--- यथा
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलम् । योगधारणयाऽग्नेय्यदग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥ अर्थ - भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार है और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है । इसलिए उन्होंने अग्नि देवता - सम्बन्धी योग - धारणा के द्वारा उसको जलाया नहीं , सशरीर अपने धाम में चले गये ॥६ ॥ .... क्रमशः।।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ * ये दोनों प्रकृतियाँ परमात्मा के स्वभाव या गुण नहीं हैं , परमात्मा के अधीन में हैं । जैसे किसी के अधीनस्थ चीज उसकी है । परन्तु वह उसका स्वभाव नहीं है । लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी को भी यह मान्य है कि प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है , परमात्मा के अधीनस्थ है ; यथा - ' श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान ने पहले यह वर्णन करके कि प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है - मेरी ही माया है । ' ( गीता , अध्याय ७ , श्लोक १४ ) फिर आगे कहा है - ' प्रकृति अर्थात् माया और पुरुष , दोनों अनादि हैं । ' ( १३ / १ ९ ) ( गीता - रहस्य , पृष्ठ २६३ )
** महाभारत , उद्योगपर्व , अ ० ७० , श्लोक ३ का अर्थ - बसें सब भूतप्राणी होने से विष्णु नाम कहाया ।
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इस अध्याय के शेष भाग को पढ़ने के लिए यहां दबाएं ।
प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि gyaan vigyaan yog kya hai? nimn koti kee prakrti aur para prakrti kya hai? soory aur chandrama mein tej kahaan se aata hai? saatvik, raajas aur taamas bhaav kahaan se utpann hue hain? saansaarik log kin gunon se mohit hote hain? moh se chhootane ka upaay kya hai? bhakt kitane prakaar ke hote hain? paramaatma ko kaun-sa bhakt adhik pyaara hai? kaun paramaatma ko paata hai? bhagavaan shree krshn ka shareer divy shareer tha ya saadhaaran logon ke tarah ka shareer? shree geeta jee mein bhagavaan ne apane ko kin shabdon se jaanaaya hai? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य देखें।
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प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणीी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।
इसमें बताया गया है कि ज्ञान विज्ञान योग क्या है? निम्न कोटि की प्रकृति और परा प्रकृति क्या है? सूर्य और चंद्रमा में तेज कहां से आता है? सात्विक, राजस और तामस भाव कहां से उत्पन्न हुए हैं? सांसारिक लोग किन गुणों से मोहित होते हैं? मोह से छूटने का उपाय क्या है? भक्त कितने प्रकार के होते हैं? परमात्मा को कौन-सा भक्त अधिक प्यारा है? कौन परमात्मा को पाता है? भगवान श्री कृष्ण का शरीर दिव्य शरीर था या साधारण लोगों के तरह का शरीर? श्री गीता जी में भगवान ने अपने को किन शब्दों से जानाया है? इत्यादि बातें इन बातों के अलावा आप निम्नांकित सवालों के जवाबों में से कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- ज्ञान-विज्ञान क्या है? जड और चेतना क्या है? त्रिगुण क्या है? ईश्वर को कैसे पाया जाता है? भक्त कौन है और कितने तरह के होते हैं? देवता कौन है और कितनी तरह के होते हैं?गीता क्या है, श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 7, ज्ञान विज्ञान Book, विज्ञान किसे कहते हैंं, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।
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सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं What is knowledge science yoga? What is the nature and trans nature of the lower order? Where does the Sun and Moon come from? Where did the Satvik, Rajas and Tamas expressions originate? What qualities do worldly people fascinate? What is the way to get rid of attachment? What are the types of devotees? Which devotee is more fond of God? Who finds God? Was the body of Lord Krishna a divine body or a body like ordinary people? With what words has God made himself known in Shri Geeta? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-
अध्याय 7
अथ ज्ञान - विज्ञानयोग
इस अध्याय का विषय ज्ञान - विज्ञानयोग है ।
इसमें भगवान परमात्मा के नित्य , अविनाशी और मायातीत स्वरूप का वर्णन है । पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , मन , बुद्धि और अहंकार ; ये आठ उनकी अपरा ( निम्नकोटि की ) प्रकृति * है । इससे ऊँची , जगत् को धारण करनेवाली उनकी परा प्रकृति* है, जो जीव - रूप है अर्थात् चेतन है । परमात्मा भगवान की इन्हीं दोनों प्रकृतियों से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं । सब सृष्टि की उत्पत्ति और लय के कारण परमात्मा हैं और सारी रचना उनमें गुंथी हुई है । जल में रस ; सूर्य , चन्द्र और अग्नि में तेज , वेदों में ॐकार , आकाश में शब्द , पुरुषों में पराक्रम , पृथ्वी में गन्ध , प्राणी - मात्र का जीवन , तपस्वी का तप , बुद्धिमान की बुद्धि , तेजस्वी का तेज , बलवान का काम - रागरहित बल और प्राणियों में धर्म का अविरोधी काम परमात्मा हैं । सात्त्विक , राजस और तामस , जो सब भाव हैं , सब परमात्मा से उपजे हुए हैं । परमात्मा में वे सब हैं ; परन्तु परमात्मा उनमें नहीं हैं । इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा उन भावों के अवलम्ब से नहीं रहते हैं । उन भावों से वे निर्लिप्त रहते हैं ; परन्तु वे भाव उनके आधार पर रहते हैं । सांसारिक लोग त्रैगुणी भावों से मोहित रहते हैं । इसलिए वे मोहित हुए लोग त्रैगुणी से उच्च और अविनाशी परमात्मा को नहीं पहचानते हैं । परमात्मा की सत् , रज और तम वाली त्रैगुणी माया को तरना कठिन है । परन्तु जो परमात्मा की शरण लेते हैं , वे इसको तर जाते हैं । जो परमात्मा की शरण नहीं लेते हैं , वे आसुरी भाववाले मूढ़ , अधम और दुराचारी हैं । माया उनके ज्ञान को हर लेती है ।
भक्त चार प्रकार के होते हैं - ज्ञानी , जिज्ञासु , आर्त और अर्थार्थी । ये सदाचारी होते हैं । इनमें ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ हैं , जो परमात्मा को प्रिय हैं । ये सब भक्त अच्छे हैं, परन्तु ज्ञानी तो परमात्मा की आत्मा ही हैं । क्योंकि वह योगी-ज्ञानी भक्त जानता है कि परमात्मा - प्राप्ति से ऊँची गति दूसरी नहीं है । बहुत जन्मों के अन्त में वह ज्ञानी भक्त परमात्मा को पाता है । सब वासुदेव** मय है -- ऐसा ज्ञानी महात्मा बड़ा दुर्लभ है । अनेक कामनाओं से हरी गई बुद्धिवाले , परमात्मा से भिन्न अनेक देवों की शरण जाते हैं । उन स्वल्प बुद्धिवालों को नाशवान फल मिलता है । देव और भूत आदि , जिनको जो भजते हैं , वे उनके पास जाते हैं और परमात्मा के भजनेवाले परमात्मा को ही पाकर अनाशी शान्तिमय सुखफल को सदा के लिए प्राप्त करते हैं । परमात्मदेव का परम स्वरूप इन्द्रियों से नहीं जाननेयोग्य , अनुपम और अविनाशी है । बुद्धिहीन लोग उनको इन्द्रियगम्य मानते हैं । अपनी योगमाया से ढंके हुए परमात्मदेव सबके लिए प्रकट नहीं हैं । मूढ़ सांसारिक लोग उन अजन्मा ( जिनका जन्म न हो ) और अविनाशी को भली - भाँति नहीं पहचानते । इस ज्ञान - विज्ञान अध्याय के अन्त में यह लिख देना उचित जंचता है कि सबमें परमात्मा हैं , यह ज्ञान है और सब परमात्ममय है ( जैसे जेवर धातुमय है ) , यह विज्ञान है ।
' मयि ' , ' मत्तः ' ' अहम् अस्मि ' , ' माम् ' और ' मम ' ( मुझमें , मुझसे , मैं हूँ , मुझे और मेरा ) आदि शब्दों से श्रीभगवान ने अपने को ज्ञात कराया है और उन्होंने अपने को अज , अविनाशी , इन्द्रियातीत बतलाया है । श्रीमद्भागवत , स्कन्ध १० , अध्याय २ में ये श्लोक हैं---
"भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयंकरः । आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः ॥ १६ ॥
स बिभ्रत पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः । दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह ॥ १७ ॥
ततो जगन्मंगलमच्युतांश समाहितं शूरसुतेन देवी । दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं मनस्तः ॥ १८ ॥
सा देवकी सर्वजगन्निवासनिवासभूता नितरां न रेजे । भोजेन्द्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती ॥ १९ ॥"
और
"निशीथे तमउद्भूते जायमाने जनार्दने । देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ॥ ८ ॥" ( श्रीमद्भागवत , स्क ० १० , अ ० ३ )
अर्थ - भगवान भक्तों को अभय करनेवाले हैं । वे सर्वत्र सब रूप में हैं , उन्हें आना - जाना नहीं है । इसलिए वे वसुदेवजी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गये ॥ १६ ॥
उसमें विद्यमान रहने पर भी अपने को अव्यक्त से व्यक्त कर दिया । भगवान की ज्योति को धारण करने के कारण वसुदेवजी सूर्य के समान तेजस्वी हो गये , उन्हें देखकर लोगों की आँखें चौंधिया जाती थीं । कोई भी अपने बल , वाणी या प्रभाव से उन्हें दबा नहीं सकता था ॥ १७ ॥
भगवान के उस ज्योतिर्मय अंश को , जो जगत् का परम मंगल करनेवाला है , वसुदेवजी के द्वारा आधान किये जाने पर देवी देवकी ने ग्रहण किया । जैसे पूर्व दिशा चन्द्रदेव को धारण करती है , वैसे ही शुद्ध सत्त्व से सम्पन्न देवी देवकी ने विशुद्ध मन से सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान को धारण किया ॥१८ ॥
भगवान सारे जगत् के निवासस्थान हैं । देवकी उनका भी निवासस्थान बन गई ; परन्तु घड़े आदि के भीतर बन्द किए हुए दीपक का और अपनी विद्या दूसरे को न देनेवाले ज्ञानखल की श्रेष्ठ विद्या का प्रकाश जैसे चारो ओर नहीं फैलता , वैसे ही कंस के कारागार में बन्द देवकी की भी उतनी शोभा नहीं हुई ॥ १९ ॥
जनार्दन के अवतार का समय निशींथ था । चारो ओर अंधकार का साम्राज्य था । उसी समय भगवान विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए ॥ ८ ॥
इन श्लोकों से भगवान का जन्म लेना पूर्ण रूप से विदित होता है ।
ययाहरद् भुवो भारं तां तनुं विजहावजः । कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितुः समम् ॥३४ ॥
यथा मत्स्यादि रूपाणि धत्ते जह्याद् यथा नटः । भूभारः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम् ॥३५ ॥ ( श्रीमद्भागवत , स्क ० १ , अ ० १५ )
अर्थ - भगवान कृष्ण ने लोक - दृष्टि में जिस यादव - शरीर से पृथ्वी का भार उतारा था , उसका वैसे ही परित्याग कर दिया , जैसे कोई काँटे से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे । भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान हैं ॥३४ ॥
जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और उनका त्याग कर देते हैं , वैसे ही उन्होंने जिस यादव - शरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था , उसका भी त्याग कर दिया ॥३५ ॥
महाभारत , मूसलपर्व के निम्नलिखित श्लोकों से भी भगवान श्रीकृष्ण का शरीर त्यागना और उसका जलाया जाना विदित है । जैसे---
ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः । अन्विष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभिः ॥ ( अध्याय ७ , श्लोक ३१ )
अर्थ - अर्जुन ने वासुदेव और बलदेवजी के शरीरों को खोजकर सत्य और ठीक कर्म करनेवाले आप्त पुरुषों के द्वारा उनका दाह कराया ॥३१ ॥
यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पंकजलोचनः । स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः । ( अध्याय ८ , श्लोक ८ )
अर्थ - अर्जुन बोले कि जिसकी देह - श्री बादल - सदृश और दोनों नेत्र विशाल कमलदल के तुल्य थे , उस श्रीमान् कृष्ण ने राम के सहित शरीर छोड़कर सुरलोक गमन किया है ॥ ८ ॥
श्रीमद्भागवत , स्कन्ध ११ , अध्याय ३१ , श्लोक ६ में---
यथा
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलम् । योगधारणयाऽग्नेय्यदग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥
अर्थ - भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार है और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है । इसलिए उन्होंने अग्नि देवता - सम्बन्धी योग - धारणा के द्वारा उसको जलाया नहीं , सशरीर अपने धाम में चले गये ॥६ ॥ .... क्रमशः।।
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* ये दोनों प्रकृतियाँ परमात्मा के स्वभाव या गुण नहीं हैं , परमात्मा के अधीन में हैं । जैसे किसी के अधीनस्थ चीज उसकी है । परन्तु वह उसका स्वभाव नहीं है । लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी को भी यह मान्य है कि प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है , परमात्मा के अधीनस्थ है ; यथा - ' श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान ने पहले यह वर्णन करके कि प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है - मेरी ही माया है । ' ( गीता , अध्याय ७ , श्लोक १४ ) फिर आगे कहा है - ' प्रकृति अर्थात् माया और पुरुष , दोनों अनादि हैं । ' ( १३ / १ ९ ) ( गीता - रहस्य , पृष्ठ २६३ )
** महाभारत , उद्योगपर्व , अ ० ७० , श्लोक ३ का अर्थ - बसें सब भूतप्राणी होने से विष्णु नाम कहाया ।
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G07 (क) ज्ञान विज्ञान जीव माया व्रह्म इत्यादि क्या है? कौन ईश्वर को पाता है ।। ShriGita- 7th Chapter
Reviewed by सत्संग ध्यान
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7/15/2018
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कोई टिप्पणी नहीं:
प्रभु-प्रेमी पाठको ! ईश्वर प्राप्ति के संबंध में ही चर्चा करते हुए कुछ टिप्पणी भेजें। श्रीमद्भगवद्गीता पर बहुत सारी भ्रांतियां हैं ।उन सभी पर चर्चा किया जा सकता है।
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