G07 (ख) भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों अवतार लिया था ? ShriGita-Yog-Prakash 7th Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G07 (ख) भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों अवतार लिया था ? ShriGita-Yog-Prakash 7th Chapter

श्रीगीता-योग-प्रकाश / 07 (ख)

प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात सुविख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणीी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।

इस पोस्ट के पहले वाले पोस्ट में हमलोग पढ़ चुके हैं कि ज्ञान विज्ञान जीव माया व्रह्म इत्यादि क्या है? कौन ईश्वर को पाता है । इसमें बताया गया है कि भगवान श्री कृष्ण का शरीर कैसा है? भगवान के शरीर के विषय में टीकाकारों द्वारा फैलाया गया भ्रम क्या क्या है? मूर्ति पूजा से ही मुक्त होना क्या संभव है? क्या भगवान के शरीर में देह-देही का भेद नहीं है? भगवान ने क्यों अवतार लिया था ? भगवान के क्षेत्र क्षेत्र के का ज्ञान क्या है? इसके साथ ही आप निम्नांकिचत सवालों के जवाबों में से भी कुछ-न-कुछ समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- श्री कृष्ण का जीवन परिचय, भगवान श्री कृष्ण फोटो, कृष्ण भगवान का सीरियल, श्री कृष्णा, कृष्ण भगवान का नाटक, कृष्ण भगवान का जन्म, भगवत गीता के अनुसार मोक्ष प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग कौन सा है, कलयुग में कौन से भगवान की पूजा करनी चाहिए, संतमत के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के कितने उपाय है, मोक्ष कितने प्रकार के होते हैं, श्री कृष्ण का गीता ज्ञान,गीता ज्ञान की बातें,कृष्ण की कही हुई बातें,आपकी जीवन बदल देगी श्री कृष्ण की कही हुई ये बाते,भागवत गीता का ज्ञान,एक भगवान,कृष्ण भगवान की गीता,श्री कृष्ण भगवत गीता ज्ञान, श्री कृष्ण गीता रहस्य, संपूर्ण गीता ज्ञान, गीता उपदेश इमेज, आदि बातें। इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें

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भगवान के अवतार लेने का कारण युद्ध में लटकते हुए भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन

Why did Lord Krishna take incarnation?

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं How is the body of Lord Shri Krishna?  What is the confusion spread by commentators about the body of God?  Is it possible to be free from idol worship?  Is there no difference between body and body in God's body?  Why did God incarnate?  What is the knowledge of the field of God? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-


अध्याय 7

अथ ज्ञान - विज्ञानयोग 

इस अध्याय का विषय ज्ञान - विज्ञानयोग है।


अब आगे

........लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलम् । योगधारणयाऽग्नेय्यदग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥ 
अर्थ - भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार है और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है । इसलिए उन्होंने अग्नि देवता - सम्बन्धी योग - धारणा के द्वारा उसको जलाया नहीं , सशरीर अपने धाम में चले गये ॥६ ॥

     इससे विदित होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने सशरीर निज धाम गमन किया था ।

     जबकि श्रीमद्भागवत में ही श्रीकृष्ण का शरीर छोड़ना भी लिखा है और इसका मेल महाभारत से भी है , तब मैं उनके शरीर - त्याग और अर्जुन - द्वारा उनके जलाये जाने में ही विश्वास करता हूँ । और तब उनका शरीर इन्द्रियातीत भी कैसे माना जा सकता है , जबकि उनके समय के लोगों ने उनका और उनके परिणामों को भली भाँति दर्श - स्पर्शादि किया था ? अतएव उनके शरीर को अज , अव्यक्त और इन्द्रियातीत मानना बुद्धि - विपरीत और अन्धी श्रद्धा - मात्र है । हाँ , उस शरीर में व्यापक परमात्मा को कथित विशेषणों से युक्त जानना पूर्णरूपेण यर्थाथ है । इसी कारण से मैंने भगवान के अज , अव्यक्त और इन्द्रियातीत आत्म - स्वरूप को परमात्मा कहकर यत्र - तत्र प्रसंगानुसार विदित किया है । 

     गीता - प्रेस , गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद्भगवत के दशम स्कन्ध के अध्याय १०७ , श्लोक ३१ की पादटिप्पणी में भगवान श्रीकृष्ण की बाल - लीला की व्याख्या करते हुए टीकाकार ने भ्रम पैदा किया है ।

     टीकाकार ने लिखा है - भगवान की लीला पर विचार करते समय यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि भगवान का लीलाधाम , भगवान के लीलापात्र , भगवान का लीला - शरीर और उनकी लीला प्राकृत नहीं होती । भगवान में देह - देही का भेद नहीं है । महाभारत में आया है । 

न   भूतसंघसंस्थानो  देवस्य    परमात्मनः । 
यो वेत्ति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मनः ॥ 

स सर्वस्माद् बहिष्कार्यः श्रौतस्मार्तविधानतः । 
मुखं तस्यावलोक्यापि सचैलः स्नानमाचरेत् ।।

" परमात्मा का शरीर भूत - समुदाय से बना नहीं होता । जो मनुष्य श्रीकृष्ण परमात्मा के शरीर को भौतिक जानता - मानता है , उसका समस्त श्रौत - स्मार्त कर्मों से बहिष्कार कर देना चाहिए अर्थात् उसका किसी भी शास्त्रीय कर्म में अधिकार नहीं है । यहाँ तक कि उसका मुँह देखने पर भी सचैल ( वस्त्र - सहित ) स्नान करना चाहिए । 

     एक मात्र मूर्तिपूजा को ही मोक्ष का उपाय बतानेवाले यही भूल करते हैं । भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म ग्रहण किया , गोकुल में बाललीला ( मटकी फोड़ना , मक्खन चुराना , वस्त्र छिपाना आदि ) की और बालरूप में की । यह लीला प्राकृत थी । अप्राकृत होती , तो सबों के लिए गोचर नहीं होती ; क्योंकि अप्राकृत पदार्थ का इन्द्रिय - गोचर असम्भव है । देह - देही का भेद तो स्वयं भगवान ने बताया है - ' देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।'- दूसरा अ ० , श्लोक ३० तथा गीता के १३ वें अध्याय में शरीर और शरीरी का भेद बताते हुए शरीर को क्षेत्र और उसमें स्थित अपने को क्षेत्रज्ञ बताया है । 

     टीकाकार ने किसी मान्य धर्मग्रन्थ से स्पष्ट रूप में उद्धरण देकर नहीं बताया है कि भगवान की लीला प्राकृत नहीं तथा उसमें देह - देही का भेद नहीं । महाभारत से जो उन्होंने उद्धरण दिया है , वह उनके तर्क के लिए भी सटीक नहीं बैठता । उन्होंने यह भी नहीं बताने का कष्ट किया है कि महाभारत के किस स्थल पर और किस प्रसंग में यह बात आयी है । भगवान गीता अध्याय 7 पठनीय चित्र 7 श्रीकृष्ण को उनके काल में लोगों ने देखा , स्पर्श किया , तो क्या वे ऐसे लोग थे , जिन्हें देखकर दूसरे सचैल ( वस्त्र - सहित ) स्नान कर लेते थे ? 

     श्रीमद्भागवत , स्कन्ध १ , अ ० १५ , श्लोक ३४-३५ से विदित होता है कि भगवान श्रीकष्ण के समय के पहले से ही पृथ्वी पर पापाचारी लोग बहुत हो गये थे और वे पृथ्वी के भार - रूप थे । वे उस समय के शिष्टों को दुःख देनेवाले कंटक ( काँटा ) -रूप थे । इस भार - रूप काँटे को निकालकर दूर करना बहुत ही आवश्यक था । भगवान विष्णु ने यदुवंश में इसी कारण अवतार लिया था कि उस काँटे को निकालकर दूर किया जाय । अतएव उनका इस वंशवाला शरीर - यादव - शरीर था । यह शरीर भी एक ऐसा काँटा था , जिसके द्वारा उन्होंने भू - भाररूप काँटे को निकालकर दूर कर दिया और अपने से ग्रहण किया हुआ उस यादव - शरीररूप काँटे को भी उन्होंने परित्याग कर दिया । भगवान की दृष्टि में दोनों काँटे अर्थात् भू - भाररूप काँटा और अपना यादव - शरीररूप काँटा , जिससे भू - भाररूप काँटे को निकाला , दोनों समान थे । जैसे नट मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और उन्हें त्यागते हैं , वैसे ही उन्होंने यादव - शरीर धारण किया और उसे त्याग दिया था । भगवान का वह यादव शरीर इन्द्रिय - गोचर था । श्रीमद्भागवत , स्कन्ध १० , अध्याय २ , श्लोक १६ से १ ९ तक और इसी स्कन्ध के अ ० ३ , श्लोक ८ से विदित होता है कि ( यादव - श्रेष्ठ ) वसुदेव ( भगवान कृष्ण के पिता ) के द्वारा आधान किये जाने पर देवी देवकी ( भगवान कृष्ण की माता ) ने उन्हें धारण किया । और भगवान माता देवकी के गर्भ से प्रकट हुए अर्थात् जन्म लिया । इसमें भगवान के जन्म में कोई अप्राकृतिक कार्य विदित नहीं होता अर्थात् उनका जन्म गीता अध्याय 7 पठनीय चित्र 8 प्राकृतिक रूप से ही हुआ । गर्भाधान का होना , कुछ काल गर्भ में रहना , फिर गर्भ से प्रगट होना या जन्म लेना प्राकृतिक बात ही है । अप्राकृतिक बात का इसमें लेश भी नहीं है । 

     महाभारत के मूसल पर्व , अ ० ७ , श्लोक ३१ तथा अ ० ८ , श्लोक ८ में यह व्यक्त किया गया है कि भगवान कृष्ण ने शरीर छोड़ा और अर्जुन ने आप्त पुरुषों के द्वारा उसका दाह कर्म कराया । ये बातें अप्राकृतिक वस्तु को इन्द्रियगोचर मानना बुद्धि - विपरीत है । महाभारत और श्रीमद्भागवत दोनों के रचयिता व्यासदेव माने जाते हैं । इनके द्वारा भगवान के शरीर को काँटा बताया जाना और जलाया जाना , क्या अप्राकृतिक शरीर के लिए कहा गया है ? ऐसा कदापि नहीं हो सकता । भगवान के यादव - शरीर को प्राकृतिक शरीर कहनेवाले का दर्शन करके सचैल स्नान प्रायश्चित्त - रूप में करना चाहिए , तो व्यासदेव के लिए उस हेतु अनादर का भाव रखना आवश्यक हो जाता है , जिसके पात्र व्यासदेवजी कदापि नहीं । श्रीमद्भागवत में और महाभारत में जो वर्णन भगवान कृष्ण के इन्द्रियगोचर शरीर के लिए अप्राकृतिक कहा गया है , सो वचन व्यासदेवजी के नहीं हैं , टीकाकार के हैं । श्रीमद्भगवद्गीता ( जो महाभारत का ही एक छोटा अंश है ) के सातवें अध्याय में भगवान कहते हैं 

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामऽबुद्धयः । परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥२४ ॥ 
अर्थात् ' मेरे परम अविनाशी और अनुपम स्वरूप को न जाननेवाले बुद्धिहीन लोग इन्द्रियों से अतीत मुझको इन्द्रियगम्य मानते हैं । इससे विदित होता है कि भगवान का अवयक्त ( इन्द्रियों को अगोचर ) रूप ही उनका परम भाव रूप है । उनको केवल व्यक्त भाव में ही जानना अज्ञानियों का काम है । व्यक्त रूप प्राकृतिक के अतिरिक्त अप्राकृतिक मानने - योग्य नहीं है । श्रीमद्भगवद्गीता में यह बात कहीं भी नहीं है कि भगवान के क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में अभेद है । ऐसा अभेद - ज्ञान बुद्धि - विपरीत भी है । श्रीमद्भगतद्गीता , अध्याय १३ , श्लोक २ में है

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।। 
अर्थात् ' हे भारत ! समस्त क्षेत्रों - शरीरों में रहनेवाला मुझको क्षेत्रज्ञ जान । क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद का ज्ञान ही ज्ञान है , ऐसा मेरा मत है । ' ( महात्मा गाँधी ) । परन्तु इसके साथ भगवान ने यह व्यक्त नहीं किया है कि मेरे क्षेत्र और सब क्षेत्रों में रहनेवाले मुझको , एक ही जानो । फिर भी कुछ लोग इस अभेदता को ही लोगों में विश्वास कराना चाहते हैं , जो अयोग्य है । 

सप्तम अध्याय समाप्त ॥

 

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प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि bhagavaan shree krshn ka shareer kaisa hai? bhagavaan ke shareer ke vishay mein teekaakaaron dvaara phailaaya gaya bhram kya kya hai? moorti pooja se hee mukt hona kya sambhav hai? kya bhagavaan ke shareer mein deh-dehee ka bhed nahin hai? bhagavaan ne kyon avataar liya tha ? bhagavaan ke kshetr kshetr ke ka gyaan kya hai?  इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य  देखें।



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G07 (ख) भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों अवतार लिया था ? ShriGita-Yog-Prakash 7th Chapter G07 (ख) भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों अवतार लिया था ?   ShriGita-Yog-Prakash 7th Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/15/2018 Rating: 5

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