गीता सार ।। शांतिपूर्ण जीवन जीने की कला और आत्म साक्षात्कार
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सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज द्वारा लिखित 'श्रीगीता योग प्रकाश' के 18वें अध्याय को पढ़ने के लिए यहां दवाएं।
भाष्यकार के शब्द
सर्वोपनिषदो गावो दुग्धा गोपालनन्दनः । पार्थो वत्सो सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।। ( वैष्णवीय तंत्रसार )
( सभी उपनिषद् गाय हैं । भगवान् श्रीकृष्ण उन गायों के दुहनेवाले हैं । अर्जुन बछड़ा है और अच्छी बुद्धिवाले लोग गीता के श्रेष्ठ वचनामृतरूपी दूध का पान करनेवाले हैं । )
' महाभारत ' संस्कृत भाषा में वेदव्यासजी के द्वारा लिखा गया एक ऐतिहासिक ग्रंथ है । यह पद्यात्मक है और इसके श्लोकों की संख्या एक लाख से अधिक है । इसमें कौरव - पाण्डवों का इतिहास वर्णित है । संसार के समस्त ग्रंथों में यह सबसे अधिक मोटा है । इसमें अठारह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय ' पर्व ' कहलाता है । इसके एक अध्याय का नाम है ' भीष्म - पर्व ' । इस भीष्म - पर्व के २५ वें अध्याय से लेकर ४२ वें तक के अध्यायों को अलग करके ' श्रीमद्भगवद्- गीता ' नाम दिया गया है । ' श्रीमद्भगवद्गीता ' के भी अठारह अध्याय हैं और इसके श्लोकों की संख्या ७०० है । इसमें कुल मिलाकर ९ , ४५६ शब्द प्रयुक्त हुए हैं ।
' श्रीमद्भगवद्गीता ' में मुख्यतः दो प्रकार के छन्द प्रयुक्त हुए हैं - अनुष्टुप् और त्रिष्टुप् । अनुष्टुप् छन्द के चार चरणों में से प्रत्येक में आठ - आठ अक्षर होते हैं । चार चरणोंवाले त्रिष्टुप् छन्द के प्रत्येक चरण में ग्यारह - ग्यारह अक्षर होते हैं । ' श्रीमद्भगवद्गीता ' के ६४५ श्लोक अनुष्टुप् छन्द से और ५५ श्लोक त्रिष्टुप् छन्द से बँधे हुए हैं ।
आज से लगभग ५,२०० वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र में कौरव और पाण्डव अपनी - अपनी सेनाओं के साथ परस्पर युद्ध करने के लिए एकत्र हुए थे । दोनों ओर की सेनाओं की संख्या अठारह अक्षौहिणी थी । राजगद्दी के लिए यह युद्ध होने जा रहा था ।
सौ भाई कौरवों के पिता थे अंधे धृतराष्ट्र और पाँच भाई पांडवों के पिता थे पाण्डु । कौरवों में ज्येष्ठ थे दुर्योधन और पाण्डवों में युधिष्ठिर । पाण्डु - पुत्र अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के मित्र और भक्त थे । उनके लिए भगवान् युद्ध में सारथि का काम करने जा रहे थे । अर्जन के कहने पर भगवान् ने दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच में अपने रथ को खड़ा किया । जब अर्जुन ने दोनों पक्षों में स्वजनों और संबंधियों को देखा , तो वे मोहग्रस्त हो गये और भगवान् के समक्ष युद्ध न करने की इच्छा प्रकट की । भगवान् ने उन्हें युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए उनसे जो कुछ कहा , वही ' श्रीमद्भगवद्गीता ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
धृतराष्ट्र युद्ध के मैदान में नहीं गये थे । वे घर पर ही रहकर युद्ध का समाचार सुनना चाहते थे । उनके मंत्री संजय को वेदव्यासजी ने दूर - दर्शन और दूर - श्रवण की अलौकिक शक्ति दी । संजय ने धृतराष्ट्र को उनके पास बैठे - बैठे ही अठारह दिनों तक युद्ध की सारी घटनाएँ दिव्य नेत्र तथा दिव्य श्रवण से देख - सुनकर बतायीं ।
' श्रीमद्भगवद्गीता ' में धृतराष्ट्र और संजय के संवाद के बीच श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है । ' श्रीमद्भगवद्गीता ' के ७०० श्लोकों में एक श्लोक धृतराष्ट्र का , ४१ संजय के , ८४ अर्जुन के और ५७४ श्लोक भगवान् के हैं । इसी प्रकार इसमें ' श्रीभगवानुवाच ' २८ बार , ' अर्जुन उवाच ' २१ बार , ' संजय उवच ' ९ बार और ' धृतराष्ट्र उवाच ' १ बार आया है ।
' श्रीमद्भगवद्गीता ' को संक्षेप में ' भगवद्गीता ' और ' गीता ' भी कहते हैं । श्रीमद्भगवद्गीता ' का अर्थ है - भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा गायी गयी उपनिषद् । ' उपनिषद् ' संस्कृत में स्त्रीलिंग है ; परन्तु हिन्दी में स्त्रीलिंग पुँल्लिंग - दोनों है । गीता में समस्त उपनिषदों का सार आ गया है , इसीलिए इसे ' गीतोपनिषद् ' भी कहते हैं । प्रस्थानत्रयी में ' उपनिषद् ' और ' ब्रह्मसूत्र ' के साथ - साथ ' गीता ' भी आती है । '
गीता ' का अर्थ है- -पद्य में कही गयी बात । भारत में बहुत - सी गीताएँ हैं । उनमें कुछ इतिहास - पुराणों से संबंधित हैं और कुछ अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं ; जैसे पराशर - गीता , हंसगीता , अवधूतगीता , अष्टावक्रगीता , अनुगीता , उत्तरगीता , कपिलगीता , पांडवगीता , शिवगीता , व्यासगीता , भिक्षुगीता , सूर्यगीता आदि । इन सारी गीताओं में श्रीमद्भगवद्गीता ' ही श्रेष्ठ है ।
' श्रीमद्भगवद्गीता ' हमें जीवन - भर कर्मशील बने रहने की शिक्षा देती है , कर्म का त्याग करना वह कभी नहीं सिखाती । वह कहती है कि कर्म किये बिना प्राणी एक क्षण भी नहीं रह सकता । कर्म का त्याग कर देने पर हमारे शरीर का निर्वाह होना भी कठिन हो जाएगा । अकर्तव्य कर्म का तो त्याग हमें अवश्य करना चाहिए ; परन्तु कर्तव्य कर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए । कर्तव्य कर्म करते रहने पर हमें चित्त की शुद्धि प्राप्त होती है । यह चित्त की शुद्धि आत्म - साक्षात्कार कराने में सहायक बनती है । कर्तव्य कर्म भी हमें फल की आसक्ति का त्याग करके करना चाहिए । हम जो भी कर्तव्य कर्म करें , ईश्वर की प्रसन्नता के लिए करें , सब कर्मों तथा उनके फलों को ईश्वर को समर्पित करते जाएँ और मन में कर्तापन का अभिमान नहीं रखें ।
हमें समत्व - भाव रखकर प्रत्येक कर्म करना चाहिए । सुख - दुःख , लाभ - हानि , मान - अपमान , शीत - उष्ण आदि द्वन्द्वों में हम मन के भाव को एक - सा बनाये रखें । इस तरह कर्म करने पर हमें कर्म का बंधन नहीं लगेगा । कर्म करने के ऐसे ढंग को गीता ' कर्मयोग ' कहती है । केवल बुद्धि - बल से कोई पूर्ण कर्मयोगी नहीं हो सकता । पूर्ण कर्मयोगी वही हो सकता है , जो आत्मसाक्षात्कार कर ले । आत्मसाक्षात्कार प्राप्त पुरुष को कर्म करने पर भी कर्म का लेप नहीं लगता ।
गीता कहती है कि आत्मसाक्षात्कार करने के लिए ज्ञानयोग , भक्तियोग , ध्यानयोग और कर्मयोग - इन सभी साधनों का सहारा लेना चाहिए । ये सभी साधन एक - दूसरे से अलग - अलग नहीं , एक - दूसरे से सम्बद्ध हैं ।
संसार में गीता की बड़ी प्रसिद्धि है । संसार की अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद निकल चुके हैं । इसकी शिक्षा किसी भी युग और देश के मनुष्यों के लिए उपयोगी है । इसके ज्ञान में संसार के किसी भी धर्म - संप्रदाय की गंध नहीं है । यह शांतिपूर्ण जीवन जीने की कला सिखाती है । इसकी शिक्षा पर चलकर मनुष्य आत्मसाक्षात्कार कर सकता है और सदा के लिए जन्म - मरण के चक्र से छुटकारा पा सकता है । इसका सच्चा भक्त किसी भी परिस्थिति में घबड़ाएगा नहीं और वह कभी भी दुःखी , चिंतित या शोकित भी नहीं होगा ।
गीता धर्मशास्त्र , कर्मयोगशास्त्र , अध्यात्मशास्त्र , दर्शनशास्त्र , योगशास्त्र , मोक्षशास्त्र और भक्तिशास्त्र भी है । गीताशास्त्र उसे बहुत ही आएगा , जो सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके ईश्वर - भक्ति का जीवन अपनाना चाहता है । गीता मनुष्यों को अंततः ईश्वर - भक्त बनने की विशेष प्रेरणा देती है ।
गीता की मुख्य शिक्षाएँ दूसरे - तीसरे अध्यायों में देखने को मिलती हैं । दूसरे अध्याय के ३८ वें श्लोक में गीता का प्रधान उपदेश आ गया है , वह श्लोक इस प्रकार है
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
गीता का बारहवाँ अध्याय सबसे छोटा है । इसमें भक्त के जो लक्षण बतलाये गये हैं , उन्हें भक्त बनने की इच्छा रखनेवाले व्यक्तियों को सदैव स्मरण में रखना चाहिए । अठारहवाँ अध्याय सबसे बड़ा है । इसमें ७८ श्लोक हैं । इन श्लोकों में गीता का सार आ गया है ।
कहा गया है कि सब धर्मग्रंथों का सार है वेद । वेद का सार है उपनिषद् । उपनिषद् का सार है ' श्रीमद्भगवद्गीता ' और ' ' श्रीमद्भगवद्गीता ' का सार अठारहवें अध्याय के निम्नलिखित दो श्लोकों में आ गया है
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥६५ ॥ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥६६ ॥
' महाभारत ' के भीष्मपर्व के एक श्लोक में गीता की महत्ता बतलाते हुए कहा गया है कि एकमात्र गीता का ही पाठ किया जाना चाहिए , अन्य अनेक शास्त्रों के पाठ से क्या प्रयोजन ! यह गीता स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मुखकमल से निःसृत हुई है
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद् विनिःसृता ।।
' गीता - सार ' नाम्नी प्रस्तुत पुस्तक में गीता के चुने हुए १६६ महत्त्वपूर्ण श्लोकों के अर्थ बहुत ही सरल भाषा में लिखे गये हैं और प्रत्येक अर्थ के नीचे कोष्ठक के अंतर्गत संबंधित श्लोक में आये पदों ( शब्दों ) के अर्थ भी दिये गये हैं । इसमें शक नहीं कि इस पुस्तक के पढ़ने से पढ़नेवालों को बहुत लाभ होगा । इस पुस्तक का लेखन - कार्य मैंने गुरुदेव की कृपा से पूर्ण किया है । पुस्तक के लिखने में मेरी अपनी कुछ भी बहादुरी नहीं है । गीता के उन सभी भाष्यकारों के प्रति मैं अपना आभार प्रकट करता हूँ , जिनके भाष्य - ग्रंथों से मैंने इस ' गीता - सार ' नाम्नी पुस्तक में सहायता ली है । जय गुरु !
-छोटेलाल दास १३ जून , सन् २,०२० ई ०
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