श्रीगीता-योग-प्रकाश / 17
श्रीगीता-योग-प्रकाश
अध्याय 17
अथ श्रद्धात्रय - विभागयोग
इस अध्याय का विषय श्रद्धात्रय - विभागयोग है ।
सोलहवें अध्याय में शास्त्र या सद्ग्रन्थ के अनुकूल कर्म करने का निश्चय बतलाया गया है । इसलिए प्रश्न होता है कि जो शास्त्राविधि को छोड़कर केवल श्रद्धा से ही पूजादि कर्म करते हैं , उनकी गति कैसी होनी है - सात्त्विकी , राजसी वा तामसी ?
उत्तर में कहा गया है - तीनों गणों के भिन्न - भिन्न उत्कर्ष - भाववाले भिन्न - भिन्न मनुष्य सतोगुणी , रजोगुणी और तमोगुणी होते हैं । तीनों की तीन तरह की श्रद्धाएँ होती हैं । प्रत्येक कुछ - न - कुछ स्वभाव से ही श्रद्धाशील अवश्य होता है । जिसकी जैसी श्रद्धा होती है , वह वैसा ही मनुष्य होता है ।
सात्त्विक लोग देवताओं को , राजस लोग यक्षों को और तामस लोग भूत - प्रेतादि को पूजते हैं । जो पाखण्डी और अहंकारी , इच्छा और विषयासक्ति में प्रेम के बल से प्रेरित हो , शास्त्रीय विधि से रहित भयंकर तप करते हैं , वे शरीर और अन्तरात्मा को भी कष्ट देते हैं । ऐसे लोग आसुरी निश्चयवाले हैं ।
आहार भी गुणानुसार होते हैं और उनका भी प्रभाव आहार करनेवालों पर होता है । उसी प्रकार यज्ञ , दान और तप के लिए भी समझना चाहिए । आयुष्य , सात्त्विकता , बल , आरोग्य , सुख और रुचि बढ़ानेवाले , रसदार चिकने , पौष्टिक और मन को प्रिय - ऐसे आहार सात्त्विक लोगों को प्रिय होते हैं । चरपरे , खट्टे , विशेष लवणयुक्त , बहुत गरम * नीमवत् तीखे , रूखे और दाहकारक आहार राजस लोगों को प्रिय होते हैं । रोटी , भात आदि बनकर पहर भर से पड़ा हुआ , उतरा हुआ अर्थात् सड़ने पर आया हुआ फल , दुर्गन्ध - युक्त , बासी , जूठा आदि अपवित्र आहार तामस लोगों के हैं । उन्हें ऐसे ही भोजन प्रिय लगते हैं ।
वह सात्त्विक यज्ञ है , जो फल - आश से रहित , विधि पूर्वक , कर्तव्य जानकर और परोपकारार्थ खूब मन लगाकर किया जाता है । जो फलेच्छा से और दम्भ से किया जाता है , वह यज्ञ राजस है । विधि - विहीन , फलाश - त्याग नहीं , श्रद्धा नहीं , इस प्रकार के किए गए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।
देव , ब्राह्मण , गुरु और ज्ञानी की पूजा , पवित्रता , सरलता , ब्रह्मचर्य , अहिंसा - ये शारीरिक तप हैं । अकटु , सत्य , प्रिय और हितकर वचनों को बोलना और धर्मग्रन्थों का अभ्यास - ये वाचिक तप कहलाते हैं । मन की प्रसन्नता , सौम्यता ( प्रिय स्वभावयुक्त होना ) , मौन , आत्म - संयम और शुद्ध भावना - ये मानसिक तप हैं । परम श्रद्धालु , फलाश - त्यागी , समत्व में रहते हुए अच्छे स्वभाव के मनुष्य उपर्युक्त तीनों प्रकार के जो तप करते हैं , उन्हें सात्त्विक तप कहते हैं । जो तप सत्कार , मान और पूजा के लिए पाखण्डपूर्वक होता है , वह राजस है । कष्टकर , दुराग्रह से किए हुए और दूसरे को दुःख देने के हेतु किए हुए तप को तामस तप कहा है ।
जो दान देश , काल और पात्र का विचार कर उचित अँचने पर और बदला पाने की इच्छा छोड़कर दिया जाता है , वह सात्त्विक दान है । जो दान बदला पाने का लक्ष्य करके दुःख के साथ दिया जाता है , वह राजस दान है । देश , काल और पात्र का कुछ भी विचार न कर तिरस्कार करके अनादर से दिया हुआ दान तामस दान है । इस अध्याय के नाम का विषय - वर्णन गीता में यहीं तक है ।
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