G15 गीता के अनुसार पुरुषोत्तम किसे कहते हैं ।। क्षर-अक्षर क्या है ।। Bhagwat Geeta- 15tin Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G15 गीता के अनुसार पुरुषोत्तम किसे कहते हैं ।। क्षर-अक्षर क्या है ।। Bhagwat Geeta- 15tin Chapter

श्रीगीता-योग-प्रकाश / 15

प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणीी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।

इस पोस्ट में  पुरुषोत्तम योग क्या है? परम प्रभु परमात्मा के उत्तम स्वरूप को क्या कहते हैं? 15 में अध्याय में पुरुषोत्तम योग का वर्णन क्यों करना पड़ा? पुरुषोत्तम भगवान कैसा है? पुरुषोत्तम भगवान का माया रूप बृक्ष के शाखा और पत्ते क्या है? इस वृक्ष को कैसे काटा जा सकता है? अविनाशी पद कैसे प्राप्त होता है? क्षर किसे कहते हैं ? अक्षर किसे कहते हैं? सर्वज्ञ कौन होता है?  आदि बातों के बारे में बताया गया है। इसके साथ-ही-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- क्षर और अक्षर क्या हैं, सर्वज्ञ कौन होता है, पेड़ के प्रकार, सूर्य की रोशनी से कौन सा पौधा खेलता है, पेड़ कितने प्रकार के होते हैं, अक्षर कितने प्रकार के होते हैं,गीता क्या है, भगवत गीता का 15 अध्याय, गीतेचा पंधरावा अध्याय, भगवत गीता का 15 अध्याय हिंदी में,भगवद गीता अध्याय 16, भगवत गीता 15 अध्याय मराठी PDF, गीता अध्याय १५ श्लोक ७, भगवद गीता अध्याय 15 PDF, गीता १५ वा अध्याय पीडीऍफ़, गीता 15 अध्याय PDF download, यथार्थ गीता अध्याय 15, भगवत गीता 15 अध्याय, आदि सवालों की जानकारी प्राप्त करने के पहले आइए गुरु महाराज का दर्शन करें।

'श्रीगीता-योग-प्रकाश' के 14 वां अध्याय का पाठ करने के लिए    यहां दवाएं।  

ऊपर जड़ और नीचे शाखा वाले मायाबृक्ष का चिंतन करते हुए सद्गुरु महर्षि मेंहीं

According to the Gita, who is called Purushottam. What is a letter

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज श्री गीता योग प्रकाश के इस अध्याय में बताते हैं- What is Purushottam Yoga?  What is the best form of Param Prabhu God called?  Why did you have to describe Purushottama Yoga in chapter 15?  How is Purushottam Bhagwan?  What is the branch and leaves of the tree as the Maya form of Purushottam Lord?  How can this tree be cut?  How do I get indestructible status?  What is Kshar?  What is a letter?  Who is omniscient?, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के लिए आइए गुरु महाराज लिखित इस अध्याय  का पाठ करें-



श्रीगीता-योग-प्रकाश 

अध्याय 15

अथ पुरुषोत्तमयोग 

इस अध्याय में पुरुषोत्तम - योग का वर्णन किया गया है । 

     इस अध्याय में क्षर ( सगुण ) और अक्षर ( निगुण ) से परे परमात्मा के उत्तम स्वरूप – ' पुरुषोत्तम ' का वर्णन है । यद्यपि गुणातीत अर्थात् निगुण अक्षर पुरुष भी है , तथापि पुरुषोत्तम इस निगुण अक्षर पुरुष से उत्तम है । परमात्मा पुरुषोत्तम और अक्षर पुरुष , दोनों का पृथक - पृथक ज्ञान लोगों को जनाया जाय , पुरुषोत्तम पुरुष परमात्मा की उच्चता का बोध हो और अक्षर पुरुष की पुरुषोत्तम से निम्नता का बोध हो , इसी हेतु ' पुरुषोत्तम योग ' का वर्णन हुआ , ऐसा बोध होता है । 

     दोनों निगुण हैं सही , फिर भी दोनों में जो भेद है , सो तो समझाया जाना ही चाहिये । पहले कहे गये अध्यायों में यदि किसी को उपयुक्त विषय का निर्णयात्मक रूप से यथार्थ ज्ञान नहीं हो और वह भ्रमित रहे , तो उसी के भ्रम - निवारणार्थ इस पन्द्रहवें अध्याय में ' पुरुषोत्तम - योग ' का कथन किया गया है । 

     इसमें कथन का आरम्भ इस तरह किया गया है कि ऊपर जड़ - वाला , नीचे शाखा - वाला , जिसका पत्ता वेद है , ऐसा एक अश्वत्थ ( पीपल ) वृक्ष है । इसका जानने वाला ज्ञानी होता है । त्रयगुणों के द्वारा बढ़े हुए इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर - नीचे और दूर - दूर तक सर्वत्र फैली हुई हैं । कर्मों का बन्धन करने वाली उसकी जड़ें मनुष्य - लोक में नीचे फैली हुई हैं । यह माया - वृक्ष महा अद्भुत है ; यह पूर्णरूप से जाना नहीं जाता है । विवेकी भक्त संसारासक्ति - विहीनता के दृढ़ शस्त्र से इस अश्वत्थ वृक्ष को काट* 
कर उस पद को खोज निकाले , जहाँ से पुनः कोई संसार में नहीं लौटता है । वह अपना संकल्प उस पुरातन पुरुष ( पुरुषोत्तम ) की ओर जाने का करे वा प्रार्थना करे कि जिसने इस पुरानी माया को विस्तृत करके फैलाया है , मैं उसी आदि - पुरुष की शरण हूँ । 

     जिसने मान , मोह और विषयासक्ति के दोषों का त्याग किया है , जो आत्मा में सदा निरत है और जो दुःख - सुख आदि द्वन्द्वों से मुक्त है , वह ज्ञानी अविनाशी पद पाता है । उस पद को सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि प्रकाशित नहीं करती है । उसमें जाकर फिर कोई नहीं लौटता है , वह परमात्मा का परम धाम है । 

     जीवलोक में परमात्मा का ही सनातन अंश जीव**   कहलाता है । प्रकृति से बने मन और इन्द्रियों को लिये हुए जीव शरीर में रहता है और एक देह से दूसरी देह में इन मन - इन्द्रियों को संग लेता जाता है । इसका प्रभुत्व सीमित रूप से केवल उसी देह पर रहता है , जिस देह में यह रहता है । इस हेतु केवल उसी देह का वह अर्थात् जीव , ईश्वर उसी तरह कहा जा सकता है , जिस तरह नर + ईश्वर = नरेश्वर , किसी मनुष्य राजा को कह सकते हैं । इस तरह मनुष्य को ईश्वर कहते हैं , परन्तु उसको परमेश्वर परमात्मा नहीं मानते हैं । इसी दृष्टि से गीता के इस अध्याय के श्लोक ८ में जीव को ईश्वर कहा गया है । और कहा गया है कि यह जीव - रूप ईश्वर जब शरीर धारण करता और छोड़ता है , तब वह मन और इन्द्रियों को उसी तरह साथ ले जाता है , जिस तरह हवा गन्ध को साथ ले जाती है । वह मन - इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता है ।

     इस जीव को अज्ञानी अपरोक्ष रूप से नहीं जान सकता । परन्तु आत्म - दृष्टि ∆  रूप दिव्य चक्षु वाले ज्ञानीजन जीव को पूर्ण रूप से जानते हैं । यत्न में संलग्न योगी अपने शरीर में रहने वाले को देखते हैं । परन्तु जिनका अन्तःकरण पवित्र नहीं है , वे अज्ञ जन अपने अन्तर यत्न करने पर भी इसे नहीं पहचान सकते हैं । सब सृष्टि में तीन पुरुष हैं - क्षर , अक्षर और पुरुषोत्तम । 

     सब नाशवानों को ' क्षर ' कहते हैं । अनाशवान् को ' अक्षर ' कहते हैं , जो सब क्षर में स्थित और अन्तर्यामी होकर रहता है । पुरुषोत्तम इन दोनों पुरुषों से परे है , जो परमात्मा कहलाता है । वह अविनाशी सर्वेश्वर सारी सृष्टि में प्रवेश करके सबका पोषण करता है । पुरुषोत्तम के जानने वालों को ही सर्वज्ञता होती है ; क्योंकि ये जानने वाले , पुरुषोत्तम सर्वेश्वर का पूर्ण भाव से भजन करते हैं । गीता में कथन किये गये ज्ञान को जानकर मनुष्य बुद्धिमान् बने और अपना जीवन सफल करे । 

।। पंचदश अध्याय समाप्त ।। 


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 * वृक्ष के कट जाने पर उसके डाल - पत्ते सब सूख जाते हैं ; कहा जा चुका है कि ' वेद ' इसके पत्ते हैं । 

** अध्याय ७ श्लोक ५ में कह आये हैं कि जीव परमात्मा की परा प्रकृति है । अपरा अष्टधा प्रकृति से यह उच्च है अर्थात् चेतन है ( अध्याय ७ में पढ़िये ) । परमात्म - अंश शरीरस्थ आत्मा , परा प्रकृति - चेतन और मन इन्द्रियादि अपरा प्रकृति के सम्मिलित रूप को ' जीव ' कहते हैं । अनन्त , असीम परमात्मा सर्वव्यापी और ध्रुव हैं । उन्हीं की सत्ता पर चेतन ऐसा गतिशील है , जैसे आकाश के आधार पर वायु । शरीर - अन्तःकरण के आवरणस्थ परमात्म - अंश उसी तरह अपने अंशी से अभिन्न रहता है , जिस तरह घट - मठादि आवरणों में महदाकाशांश अपने अंशी से अभिन्न रहता है । चेतन जीवनी शक्ति है । अन्तःकरण - युक्त रहते हुए इसका कार्य विदित होता है । इन बातों की विशेष जानकारी के लिये ' सत्संग - योग ' पढ़िये 

 ∆ चेतन आत्मा पर से जड़ के सब आवरणों के हट जाने पर यह दृष्टि होती है । 

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इस अध्याय के बाद वाले अध्याय 16 को पढ़ने के लिए  यहां दवाएं।


प्रभु प्रेमियों "श्रीगीता-योग-प्रकाश" नाम्नी पुस्तक के इस लेख पाठ द्वारा हमलोगों ने जाना कि "purushottam yog kya hai? param prabhu paramaatma ke uttam svaroop ko kya kahate hain? 15 mein adhyaay mein purushottam yog ka varnan kyon karana pada? purushottam bhagavaan kaisa hai? purushottam bhagavaan ka maaya roop brksh ke shaakha aur patte kya hai? is vrksh ko kaise kaata ja sakata hai? avinaashee pad kaise praapt hota hai? kshar kise kahate hain ? akshar kise kahate hain? sarvagy kaun hota hai? . इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने । इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस पद्य का पाठ किया गया है उसे सुननेे के लिए निम्नलिखित वीडियो देखें। 



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