7. ईश्वर सगुण और निर्गुण दो तरह का क्यों कहा जाता है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
| सगुण और निर्गुण ईश्वर |
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"लोग ईश्वर को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में मानते हैं। निर्गुण सनातन रूप है और सगुण पीछे का। एक जगह गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
भगत हेतु भगवान प्रभु, रामधरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
उन्होंने निश्चित बात बता दी कि त्रयगुण रूप आवरण के धारण करने से वह त्रयगुण नहीं हो गया। अपने शरीर पर कितने भी कपड़े पहन लो, तुम्हारा शरीर भिन्न ही और कपड़ा भिन्न ही रहता है। इसी तरह चेतन आत्मा, चेतन आत्मा ही रहती है; शरीर, शरीर ही। चेतन आत्मा ज्ञानस्वरूप है और शरीर जड़-अज्ञानमय है। आवरण धारण करनेवाला वही हो जाता है, ऐसी बात नहीं। सृष्टि में ईश्वर का व्यापक विराटरूप सगुण है। लोगों ने विराटरूप में अनेक लोक-लोकान्तरों के दर्शन किए। अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने विराटरूप दिखाया और जब नारद को विराटरूप का दर्शन दिया, तब कहा कि 'तू जो मेरा रूप देख रहे हो, यह मेरी उत्पन्न की हुई माया है।' और श्रीमद्भगवद्गीता ७/२४ में भी कहा कि 'मैं अव्यक्त हूँ और बुद्धिहीन लोग मुझे व्यक्त मानते हैं।'
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
असल में मूल स्वरूप त्रयगुणातीत, अज और अविनाशी है। और सब चीजें क्षणभंगुर और नाशवान हैं। यह सब समझकर जब ईश्वर-दर्शन के लिए इच्छा हो, तो उसको पाने की आसक्ति होनी चाहिए। व्यास के बताए अनुकूल युधिष्ठिर को धन का पता लगा, उस धन में उसकी आसक्ति हुई और उधर उसका प्रेम प्रवाहित हुआ। इसी तरह संतों के बताए अनुकूल ईश्वर के स्वरूप को जाने, आसक्ति लावे, उस ओर प्रेम प्रवाहित करे और ईश्वर की भक्ति करे।
भक्ति का अर्थ है सेवा। जिसको जिस चीज की आवश्यकता हो, उसको वह चीज दो, तो उसकी सेवा होती है। ईश्वर को क्या कमी है? ईश्वर से मिलने की इच्छा रखो, यही भक्ति है। संतों ने ईश्वर का जो ज्ञान दिया है, उस ओर हमारी बुद्धि प्रवाहित हो। दादू दयालजी ईश्वर- स्वरूप को बताते हैं-
दादू जानैन कोई, संतन की गति गोई।। टेक ।।
अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई।।
वह ईश्वर कहाँ मिलते हैं? तो कहा- 'अविगत अंत अंत अंतर पट' अर्थात् वह सर्वव्यापी परमात्मा अपने अंदर के अंतिम पट को पार करने पर मिलेंगे। अकथ होने के कारण सूरदासजी ने भी कहा है-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु, निरालंब मन चक्रित धावै ।
सब विधि अगम विचारहि तातें, 'सूर' सगुन लीला पद गाँवै।।"
(महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर, प्रवचन नंबर 209, मुरादाबाद १२.४.१९६५ ई० )
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