S01 9. ईश्वर प्राप्ति के लिए ध्यानाभ्यास कैसे करते हैं? How to practice meditation? - SatsangdhyanGeeta

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S01 9. ईश्वर प्राप्ति के लिए ध्यानाभ्यास कैसे करते हैं? How to practice meditation?

9. ईश्वर प्राप्ति के लिए ध्यानाभ्यास कैसे करते हैं? 

प्यारे लोगो !


     9. "अब ध्यान - अभ्यास के विषय पर कुछ प्रकाश पाने के लिए  सन्त दादू दयालजी महाराज के वचन सुनिये- 

सब काहू को होत है ,   तन  मन  पसरै   जाइ । 
ऐसा   कोई  एक  है ,  उलटा    माहिं    समाइ ॥१ ॥ 
क्यों करि उल्टा आणिये , पसरि गया मन फेरि । 
दादू डोरी   सहज की ,   यौं   आणे  घेरि   घेरि ॥२ ॥ 
साध सबद सौं मिलि रहै,   मन  राखै  बिलमाइ । 
साध सबद बिन क्यों रहै , तबहीं  बीखरि जाइ ॥३ ॥ 
तन में मन आवै नहीं ,   निसदिन  बाहरि  जाइ । 
दादू  मेरा जिव   दुखी ,  रहै  नहीं    ल्यौ   लाइ ॥४ ॥ 
कोटि जतन करि करि मुए, यहुमन दह दिसि जाइ । 
राम नाम रोक्या रहै ,     नाहीं   आन   उपाइ   ॥५ ॥ 
मन ही  सन्मुख नूर है ,   मन   ही  सन्मुख तेज । 
मन ही सन्मुख जोति है , मन  ही सन्मुख सेज ॥६ ॥ 
मन ही सौं मन थिर भया, मनहीं सौं   मन लाइ । 
मन ही सौ मिली रह्या ,   दादू  अनत   न  जाइ ॥७ ॥ 
सबर्दै   बन्ध्या  सब  रहै ,    सबर्दै   सबही जाइ । 
सबर्दै  ही   सब   ऊपजै ,    सबर्दै   सबै  समाइ ॥८ ॥ 
सबर्दै   ही   सूषिम  भया ,‌   सबर्दै सहज समान। 
सबर्दै   ही  निर्गुण   मिलै , सबर्दै  निर्मल  ज्ञान  ॥९ ॥ 
एक   सबद   कुछ   किया ,   ऐसा समरथ सोइ । 
आगे   पीछे     तौ     करै ,   जे  बलहीणा  होइ ॥१० ॥ 
यन्त्र बजाया साजि   करि ,  कारीगर   करतार । 
पंचों     कारज    नाद   है ,  दादू    बोलणहार  ॥११ ॥ 
पंच   ऊपना    सबद   थैं ,  सबद   पंच सौ होई । 
साई   मेरे   सब   किया ,   बूझै   बिरला    कोइ ॥१२ ॥ 
सबद   जरै  सो    मिली   रहै ,    एकै  रस   पूरा । 
काइर  भाजे    जीव    ले ,  पग     माँडै     सूरा  ॥१३ ॥

     दादूदयालजी कहते हैं कि सर्वसाधारण का मन शरीर में पसरा हुआ रहता है ; परन्तु ऐसा कोई बिरला है , जिसका मन उलटकर ( बहिर्मुख से ) अन्तर्मुख होकर अन्दर में समाता है । ( मन का स्थान तो शरीर के अन्दर है ही , फिर अन्दर में समाने का तात्पर्य यह कि जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में जिस - जिस स्थान पर मन रहता है , उन तीनों स्थानों से विशेष अन्तर में मन प्रवेश कर जाय । ये तीनों स्थान शरीर के अन्दर के स्थूल तल पर ही हैं । इन तीनों से छूटकर मन सूक्ष्म तल पर आरूढ़ हो , मन के अन्दर समाने का भाव यही है ) ॥१ ॥ मन को किस तरह उलटाकर ( अंदर में ) लावें ? यह फिर पसर गया , हे दादू ! संग - संग उत्पन्न होनेवाली स्वाभाविक डोरी ( धारा ) पकड़ और मन को घेर - घेरकर अन्दर में ला ( सृष्टि - निर्माण के आदि में कम्प अवश्य होता है और कम्प का सहचर शब्द अनिवार्य रूप से होता है । स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य ( जड़ - विहीन चेतन ) , स्थूल , सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेदों से सृष्टि के ये पाँच मण्डल जानने में आते हैं । इन सबके केन्द्रों एवं उनसे उत्थित कम्पों के सहित शब्द के उदय से ही सम्पूर्ण सृष्टि का विकास तथा पूर्णतया निर्माण हुआ है । कथित केन्द्रीय शब्द को ही ' सहज डोरी ' कहा गया है । अपने केन्द्र में आकृष्ट करने का गुण शब्द में है , इसलिए इस शब्द - रूप सहज डोरी को ग्रहण करके मन बहिर्मुख से अन्तर्मुख खिंचकर रहेगा ) ।।२ ।। साधु शब्द से मिलकर रहे और मन को ठहराकर रहे । साधु शब्द के बिना क्यों रहता है तभी तो ( शब्द - विहीन रहते हुए साधु का मन ) बिखर जाता है ।।३ ।। मन ( उलटकर ) शरीर में नहीं आता है , दिन - रात बाहर - बाहर जाता है । ( इसलिए ) दादूदयालजी कहते हैं कि मेरा मन दुःखी है ; क्योंकि साधन में मन लगकर नहीं रहता है । ।।४ ।। लोग मन रोकने के करोड़ों उपाय करके मर जाते हैं , परन्तु मन रुकता नहीं , दसो दिशाओं में जाता रहता है , यह रामनाम ( रामनाम के ग्रहण ) से रुका रहता है । दूसरा उपाय नहीं है ।। ५ ।। ( यहाँ पर राम - नाम से तात्पर्य सर्वव्यापिनी अनाहत ध्वनि से है । इस ध्वनि को नाम इसलिए कहते हैं कि इसके द्वारा चैतन्य आत्मा को आदि मूलतत्त्व अक्षर पुरुषोत्तम परमात्मा की पहचान हो जाती है

नीके राम कहतु है वपुरा । 
घर माहै घर निर्मल राखै , पंचौं धोवै काया कपरा ।। टेक ।। सहज समरपण सुमिरण सेवा , तिरवेणी तट संयम सपरा । सुन्दरि सन्मुख जागण लागी , तह मोहन मेरा मन पकरा ॥ विन रसना   मोहन  गुण  गावै , नाना  वाणी   अनभै  अपरा । 
दादू   अनहद   ऐसें     कहिये , भगति तत यहु मारग सकरा ॥

    सन्त दादूदयालजी के इस शब्द से विदित है कि रामनाम से उनका तात्पर्य अनाहत नाद से है । मन के सन्मुख ही प्रकाश है और आराम करने का स्थान - बिछावन है । ( जाग्रत् अवस्था में आज्ञाचक्र के केन्द्र में मन की बैठक है । उसके सम्मुख वृत्ति के सिमटाव और स्थिरता से प्रकाश और चैन का स्थान प्रत्यक्ष होता है ) ।६ ।।"





 
    प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसी महाराज का यह प्रवचन ग्राम डोभाघाट (जिला पूर्णियाँ) अ० भा० सं० स० विशेषाधिवेशन के अवसर पर दिनांक ५.१२.१६४६ ई० के सत्संग में हुआ था ।जिसमें उन्होंने उपरोक्त बातें कही थी । महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर के सभी प्रवचनों में कहाँ क्या है? किस प्रवचन में किस प्रश्न का उत्तर है? इसे संक्षिप्त रूप में जानने के लिए  👉यहाँ दवाएँ। 




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