श्रीगीता-योग-प्रकाश 06/ (च)
प्रभु प्रेमियों ! वराह पुराण में श्रीमद्भागवतगीता की महिमा गाते में लिखा गया है- "यः श्रृणोति च गीतार्थ कीर्तयेच्च स्वयं पुमान्- श्रावयेच्च परार्थ वै स प्रयाति परं पदम् ।" अर्थात् जो मनुष्य स्वयं गीता का अर्थ सुनता है , गाता है और परोपकार हेतु सुनाता है वह परम पद को प्राप्त होता है। "नोपसर्पन्ति तत्रैव यत्र गीतार्चनं गृहे- तापत्रयोद्भवाः पीडा नैव व्याधिभयं तथा।" अर्थात् जिस घर में गीता का पूजन होता है वहां ( आध्यात्मिक , आधिदैविक और आधिभौतिक ) तीन ताप से उत्पन्न होने वाली पीड़ा तथा व्याधियों का भय नहीं आता।
इस लेख में बताया गया है ध्यान को किस तरह साधा जाता है? प्रत्याहार क्या है ? प्रत्याहार कैसे करते हैं? मन बहुत कठिन था से बस में होता है। ध्यान अभ्यास करने का स्वल्प अभ्यास भी जीव को महाभय से बचाता है। ज्ञानवान योगी के कुल में कौन जन्म पाता है? शब्द ब्रह्म क्या है? गीता ज्ञान के अनुसार ध्यान अभ्यास का समय कब नहीं रहेगा? इत्यादि बातों साथ-साथ निम्नांकित सवालों के भी कुछ-न-कुछ का समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- ध्यान में प्रत्याहार क्या है, धारणा और ध्यान में अंतर धारणा क्या है, योग क्रिया में प्रत्याहार से अभिप्राय है, अष्टांग योग के लाभ,धारणा, ध्यान समाधि क्या है, अष्टांग योग क्या है, योग में प्रत्याहार का अर्थ, अंतरंग योग क्या है, चित्त की भूमिका क्या है, बहिरंग योग क्या है, प्रत्याहार योग क्या है, अष्टांग योग का दूसरा नाम क्या है, इत्यादि बातें । इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज के दर्शन करें।
श्रीगीता-योग-प्रकाश के अध्याय 6 (ड•) को पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं How is meditation practiced? What is withdrawal How do withdrawal? The mind was very hard to be in the bus. The short practice of practicing meditation also saves the organism from great fear. Who is born in the family of a knowledgeable yogi? What is the word Brahma? According to Gita knowledge when will not be the time for meditation practice? आदि बातें । आइए उनकेे विचार पढ़ते हैं-
अध्याय ६
अथ ध्यानयोग
इस अध्याय का विषय ध्यानयोग है ।
...ध्यानाभ्यास करके जो अपने को नियम में कर लेगा , वह अपने को परमात्मा में जोड़कर उनमें विराजने वाली शान्ति प्राप्त करेगा । जो बहुत खाता है अथवा उपवासी रहता है , बहुत सोता है या अति अल्प सोता है , उसको योग की सिद्धि नहीं होती है , बल्कि जिसका भोजन , शयन और जागरण तथा अन्यान्य कर्म , सब उचित परिमाण में नपे - तुले होते हैं , यह योग उसका दुःखभंजन होता है । कामनाओं में सदा निस्पृह रहता हुआ ध्यानयोगी का मन , निर्वात - स्थान में दीपशिखा - सदृश स्थिर होता हुआ आत्मा में लगा रहता है । यह योग बिना उकताये हुए साधने - योग्य है ।
चंचल मन साधन छोड़कर जिधर - जिधर भागे , उधर उधर से उसको लौटा - लौटाकर साधना में अनवरत रूप से लगाने का प्रत्याहार करना चाहिए । इस भाँति मन शान्त और वश में होगा । अभ्यासी को अनन्त ब्रह्म - सुख तथा समत्व की प्राप्ति होगी। वह अपने में सबको , सबमें अपने को , ईश्वर को सबमें*
और ईश्वर में सबको आत्मदृष्टि**
से प्रत्यक्ष ( न कि केवल बौद्धिक रूप में ) देखेगा । परमात्मा के दर्शन उसको सदा मिलते रहेंगे और परमात्मा को तो कभी कुछ भी अदृश्य नहीं रहता है , वह कभी भी कैसे उसको अदृश्य रहेगा ? वह समत्व - प्राप्त भक्त - योगी अपने जैसा सबको देखता हुआ , कर्तव्य कर्मों में बरतता हुआ , परमात्मा की प्रत्यक्षता में ही रहा करता है ।
यद्यपि मन की अत्यन्त चंचलता और इसके दुःसाध्य होने के कारण इसको वश में करना बड़ा कठिन है; तथापि अभ्यास ( ध्यान ) और वैराग्य से इसको वश में किया जाता है । यदि ध्यान - योग में श्रद्धा रखे ; परन्तु साधन में ढीला रहे , तो यह योग - भ्रष्ट पुरुष अपने स्वल्पातिस्वल्प ध्यान - योगाभ्यास के फल से दुर्गति को प्राप्त न होकर प्रथम स्वर्ग - सुख भोगेगा ; पुनः इस पृथ्वी पर किसी पवित्र श्रीमान के घर में अथवा किसी ज्ञानवान योगी के घर में जन्म लेगा और पूर्व के अभ्यास - संस्कार से प्रेरित होकर , ध्यान - योगाभ्यास में लग जायेगा । वह मोक्ष की ओर आगे बढ़ेगा और इस प्रकार अनेक ∆
जन्मों की कमाई के द्वारा पापों से छुटकर पवित्र होता हुआ परम गति ( मोक्ष ) को प्राप्त करेगा ।
ज्ञानवान योगी के कुल में जन्म पाने को दुर्लभ कहा गया है । इसका हेतु यह ज्ञात होता है कि पवित्र श्रीमान के कुल में बारम्बार जन्म पाकर पूर्व संस्कार - द्वारा ध्यान - योगाभ्यास में जब वह अभ्यासी अधिकाधिक संलग्न होगा और विशेष अभ्यास से उसे सिद्धि मिलेगी , तब वह ज्ञानवान योगी - कुल में जन्म लेने का पात्र होगा । और उसमें जन्म लेकर ध्यान - योगाभ्यास में पारंगत हो , परम मोक्ष को प्राप्त करेगा । इस योगाभ्यास का स्वल्प अभ्यास भी जीव को भव के महाभय से बचाता है और इसकी ऐसी महिमा है कि इसका जिज्ञासु ¶
भी शब्दब्रह्म••
अर्थात् नाद - ब्रह्म को पार कर जाता है । यह नाद - ब्रह्म सृष्टि का बीज है । सृष्टि के आदि में परमात्मा से सर्वप्रथम इसी का आविर्भाव होता है । इसलिए इसको आदिनाद , आदिनाम और आदिशब्द कहा जाता है । इसको पार कर जाने से ही भवसागर से मुक्ति होती है ।
इसका विशेष विवरण ' सत्संग - योग '##
के चारो भागों में लिखा गया है । यहाँ नमूने के लिए ' वराहोपनिषद् ' , अध्याय २ का एक मन्त्र दिया जाता है । सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा । नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता।।८३ ॥ अर्थ - योग - साम्राज्य की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को सब चिन्ता त्यागकर सावधान होकर नाद की ही खोज करनी चाहिए । ध्यानयोग का सार - साधन नादानुसन्धान है , जो साधन के अन्त तक पहुँचाता है । तपस्वी से , ज्ञानी ( वाचस ज्ञानी वा ध्यानयोग - अभ्यास में पूर्णताविहीन ज्ञानी ) से और कर्मकाण्डी से योगी अधिक है । और योगियों में भी परमात्म - भक्त योगी श्रेष्ठ है । इसलिए हे लोगो ! भक्तयोगी बनो ।
॥ षष्ठ अध्याय समाप्त ॥
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* ध्यानयोग में पारंगत से ही ऐसा होगा । केवल किसी के कहने पर कि ' सबमें ईश्वर को देखो , ' कोई सबमें ईश्वर का दर्शन नहीं पा सकता है ।
** कैवल्य दशा की आत्मदृष्टि ।
∆ श्रीमद्भगवद्गीता के कथनानुसार तो अनेक जन्मों तक ध्यानयोग करके सिद्धि मिलेगी , परन्तु जो अपने को गीता का विशेष जानकार और उसके द्वारा पुष्ट हुआ मानें , वे यदि केवल कुछ वर्षों तक ध्यान करके यह सिद्धान्त अपनी ओर से कह दें कि अब ध्यान - योग करने का समय नहीं है , तो उनकी यह बात विश्वास करने - योग्य नहीं है । अनेक जन्मों के अभ्यास के समक्ष केवल कुछ वर्षों का ही अभ्यास तो अत्यन्त स्वल्पाभ्यास है । इतने ही में अपने उक्त सिद्धान्त का प्रसार करना बड़ा ही अयोग्य है । अनेक जन्म ध्यानाभ्यास करके सिद्धि पाकर , वह यह नहीं कहेंगे कि अब ध्यानाभ्यास का समय नहीं है । क्योंकि गीता यह नहीं बताती है कि ध्यानाभ्यास करने का समय कभी नहीं रहेगा ।
¶ जबतक योगाभ्यास में कोई पूर्ण नहीं होता है , तबतक वह योग का जिज्ञासु ही है ।
•• अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते .........॥ २ ॥ ( योगशिखोपनिषद् , अ ० ३ )
अर्थ - अक्षर ( अनाशी ) परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं ॥ २ ॥
ध्यान योग में नादानुसंधान परम और अंत का साधन है । इसके समाप्त हुए बिना योग समाप्त नहीं होगा। शून्यध्यान वा विन्दुध्यान-द्वारा नादानुसन्धान ( सुरत - शब्द - योग ) का अभ्यास ग्रहण होगा । "
बिंदु पीठम् विनिर्विद्या नादलिंगमुपस्थितम्....।। १३ ।। ( योगशिखोपनिषद् , अ ० २ )
अर्थ - विन्दुपीठ का भेदन करके नादलिंग उपस्थित होता है ।
बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम् । सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।२ ।। ( ध्यानविन्दूपनिषद् )
अर्थ - परम विन्दु ही बीजाक्षर है । उसके ऊपर नाद है । नाद जब अक्षर ( अनाशी ) ब्रह्म में लय हो जाता है , तो निःशब्द परम पद है ।
लोगों ने ' शब्द - ब्रह्म ' का अर्थ वेद बतला कर , “ जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्तते ” का अर्थ “ योग का जिज्ञासु भी सकाम वैदिक कर्म कराने वाले की स्थिति पार कर जाता है । " भी किया है । मैंने ' शब्द ब्रह्म ' को जैसा समझा है , उस अर्थ में वैदिक कर्मकाण्डात्मक स्थिति को अवश्य ही अभ्यासी वा जिज्ञासु पार कर जायगा ।
## वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक के कतिपय सन्तों के शब्द इस पुस्तक में संग्रहीत हैं और चौथे भाग में यह बताया गया है कि इन वाणियों के अनुसार सन्तमत क्या है ।
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प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि dhyaan ko kis tarah saadha jaata hai? pratyaahaar kya hai ? pratyaahaar kaise karate hain? man bahut kathin tha se bas mein hota hai. dhyaan abhyaas karane ka svalp abhyaas bhee jeev ko mahaabhay se bachaata hai. gyaanavaan yogee ke kul mein kaun janm paata hai? shabd brahm kya hai? geeta gyaan ke anusaar dhyaan abhyaas ka samay kab nahin rahega? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य देखें।
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G06 (च) ध्यान में प्रत्याहार क्या है? मन कैसे बस में होता है ।। Bhagavad Gita- 6th Chapter
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
7/30/2018
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कोई टिप्पणी नहीं:
प्रभु-प्रेमी पाठको ! ईश्वर प्राप्ति के संबंध में ही चर्चा करते हुए कुछ टिप्पणी भेजें। श्रीमद्भगवद्गीता पर बहुत सारी भ्रांतियां हैं ।उन सभी पर चर्चा किया जा सकता है।
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