G12 (ग) ध्यानयोग से क्या नुकसान हो सकता है ।। Shrimad Bhagwat Geeta- 12th Chapter - SatsangdhyanGeeta

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G12 (ग) ध्यानयोग से क्या नुकसान हो सकता है ।। Shrimad Bhagwat Geeta- 12th Chapter

श्रीगीता-योग-प्रकाश / 12

प्रभु प्रेमियों ! भारत ही नहीं, वरंच विश्व-विख्यात सुविख्यात श्रीमद्भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसमें 700 श्लोक हैं तथा सब मिलाकर 9456 शब्द हैं। इतने शब्दों की यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की आध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है। संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" इसी पुस्तिका के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें सभी श्लोकों के अर्थ और उनकी टीका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण, साधनानुभूति-जन्य ज्ञान, संतवाणीी-सम्मत और गुरु ज्ञान से मेल खाते वचन चाहिए, वही इसमें दर्शाया गया है।

इसमें बताया गया है कि ध्यानयोग से क्या नुकसान हो सकता है? ध्यान योग में बरतने वाली सावधानी क्या है? प्राणायाम करना चाहिए या ध्यान योग?गीता ध्यान योग की प्रेरणा देती हैं या प्राणायाम करने की? भक्ति योग का संपूर्ण अभीष्ट क्या है? कर्म फल कैसे छूटेगा? प्रज्ञा बाल कैसे बन सकते हैं? सादा को कौन से काम अवश्य करनी चाहिए? साधकों का आचरण कैसा होना चाहिए? इसके साथ ही आप निम्नांकिचत सवालों के जवाबों में से भी कुछ-न-कुछ समाधान अवश्य पाएंगे। जैसे- भगवत गीता,श्रीमद्भगवद्गीता,महर्षि मेंहीं कृत श्री गीता योग प्रकाश,महर्षि मेंही गीता,गीता का योग, निर्गुण और सगुण ईश्वर भक्ति और इसके भेद,ईश्वर के यथार्थ स्वरुप,सगुण और निर्गुण भक्ति,भक्ति क्या है,क्या रहस्य है,वास्तविकता क्या है,भक्ति के प्रकार,हिंदी साहित्य भक्ति काल,भक्ति काल के कवि, सगुण निर्गुण में क्या अंतर है,भक्ति काल विकिपीडिया, सगुण का अर्थ,सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति मेंं फर्क,सेतु रत्न हरि की भक्ति,सगुण और निर्गुण भक्ति धारा, सगुण भक्ति के कवि,सगुण भक्ति काव्य विशेषता, सगुण निर्गुण,निर्गुण भक्ति का अर्थ,सगुण का अर्थ, आदि बातें। इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु भगवान के दर्शन करें। 

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ध्यान योग में क्या क्या सावधानी बरतनी चाहिए? इस पर चर्चा करते गुरुदेव और भक्त

What harm can be caused by meditation?

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस अध्याय में कहते हैं What harm can be caused by meditation?  What are the precautions to be taken in meditation yoga?  Should we do pranayam or meditation meditation? Gita inspires meditation yoga or pranayama?  What is the complete intention of Bhakti Yoga?  How will the karma fall away?  How can Pragya become a child?  What tasks must Saada do?  What should be the behavior of seekers? आदि बातें । आइए इस संबंध में उनकेे विचार पढ़ते हैं-


अध्याय 12

अथ भक्तियोग

इस अध्याय का विषय भक्तियोग है । 


     .... ध्यानयोग के विषय में ऐसी आपदा की बात नहीं कही गई है । गीता में ‘ भक्तियोग ' बहुत ही मधुर साधन है , परन्तु ध्यानयोग को इससे अलग रखा जाय , तो इसका सार ही निकल जाएगा । भक्ति में प्रेम की प्रधानता है । प्रेम में ध्यान अनिवार्य रूप से रहता है । ध्यानयोगवाले अध्याय में ध्यानयोग की विधि से ईश्वर में परायण रहते हुए , साधक को ध्यानाभ्यास करने के लिए बैठने की आज्ञा है । इसमें और विशेष बात यह भी जाननी ध्यान - योगयुक्त भक्तियोग में यदि केवल स्थूल - सगुण साकार ईश्वर - रूप को ही ग्रहण कर रखने का आग्रह रहे - इसके अतिरिक्त उसके अणोरणीयाम् रूप और शब्दब्रह्म - रूप को ग्रहण करने का आग्रह नहीं हो तथा ध्यानयोग में इनके ग्रहण की युक्ति या भेद जानने और उसके द्वारा अभ्यास करने की अवहेलना हो , तो ऐसा भक्तियोग ' राजविद्या और राजगुह्य ' ( गीता के अत्यन्त आकर्षक विषय ) से हीन रहकर , उसके साधन - फल को न पाकर , परमात्म - स्वरूप को नहीं प्राप्त कर , भक्ति की चरम सीमा तक नहीं पहुँच , परम मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकेगा । इसलिए भी गीता की विशेष रुचि ध्यान - योगाभ्यास कराने की ही है । राजविद्या और राजगुह्य ही तो गीता के परम आकर्षक विषय हैं - इनके अनुकूल ध्यानयोग ही है , प्राणायाम नहीं । 

     परन्तु गीता प्राणायाम करने से मन भी नहीं करती है । जिससे यह अभ्यास हो सके , वह करे ; परन्तु गीता ध्यानयोगाभ्यास ही विशेष रूप से कराना चाहती है । ध्यान - योगाभ्यास से जब मन पर पूर्ण नियन्त्रण रखने की शक्ति होगी , तब भगवान में मन लगाए रखने , उनको प्रत्येक कर्म अर्पण करने और कर्मफल - त्याग करने इत्यादि के ( जिस - जिस प्रकार अपने मन को कोई रखना चाहेगा , उस - उस प्रकार के ) साधन में उसे वह दृढ़ता से रख सकेगा । भक्तियोग में जिस - जिस प्रकार के कामों की विधियाँ गीता में दी गई हैं , उनमें से साधक अपने लिए जिसे चुने , उसमें विचार - द्वारा अपने मन को लगाए रखने का यत्न करे और साथ - ही - साथ नित्य प्रति संध्याओं के समय एकान्त में बैठ - बैठकर भी ईश्वर - प्राप्ति के लिए प्रेम - सहित ध्यान - योगाभ्यास अवश्य करे । गीता का ध्यानयोग ही वह योग है , जिसका अभ्यास नित्यप्रति संध्याओं के समय अवश्य करना चाहिए । गीता की विशेष रुचि ऐसी ही है । 

     उपर्युक्त बातें इस अध्याय के श्लोक १२ से ही विदित होती हैं । इसमें कहा गया है कि ज्ञान से ध्यान विशेष है ; परन्तु यह नहीं कि ज्ञान से प्राणायाम विशेष है । बारहवें श्लोक में कहा गया है कि अभ्यास से ज्ञान श्रेयस्कर है ; ज्ञान से ध्यान विशेष है और ध्यान से कर्म - फल - त्याग विशेष है । त्याग से तुरत ही शान्ति मिल जाती है । किसी विद्या को सीखने की क्रिया को बारंबार करने की आदत लगाने को अभ्यास कहते हैं । ज्ञान , ध्यान और कर्म - फल - त्याग के अतिरिक्त गीता में प्राणायाम आदि और जितने साधन कहे गए हैं , उन सबके अभ्यास का तात्पर्य इस अध्याय के बारहवें श्लोक के ' अभ्यास ' शब्द से विदित होता है ; क्योंकि ज्ञान , ध्यान और कर्मफल - त्याग ; इन तीनों कर्मों को तो इस श्लोक में क्रियात्मक रूप में लाने की विधि - सी जानी जाती है । इनके अभ्यास तो इनके साथ ही रह जाते हैं । तब इनके अतिरिक्त उपर्युक्त और सब अभ्यास ही बच जाते हैं । इसलिए उन बचे हुए प्राणायाम आदि के अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है , यह जानने में आता है । और जबकि ज्ञान से ध्यान को विशेष कहा गया है , तब प्राणायाम - योगाभ्यास से ध्यान - योगाभ्यास गीता के अनुकूल विशेष मानने योग्य हो ही जाता । गीता के भक्ति - योग - अध्याय में ध्यान और कर्मफल - त्याग की बड़ाई की गई है । अतएव गीता के ' भक्ति - योग ' में का अभीष्ट स्थान है , ऐसा जानना ही समुचित है । यदि इन तीनों को वा इनमें से किसी एक को ' भक्ति - योग ' से हटाया जाए , तो ' भक्ति - योग ' स्थितिशून्य हो जाएगा । ज्ञान के बिना ध्यान और ध्यान के बिना ज्ञान अभीष्ट फलप्रद ( मोक्ष - फलप्रद ) नहीं हो सकते । दोनो का अभ्यास अनिवार्य रूप से करना ही होगा । इसकी पुष्टि के विषय में योगशिखोपनिषद् तथा योगतत्त्वोपनिषद् के उद्धरणों को पृष्ठ ६ की पादटिप्पणी में पढ़कर जानिए । 

     ध्यानाभ्यास - द्वारा मन पर पूर्णाधिकार प्राप्त किए बिना तथा ध्यानाभ्यास में पूर्णता पाकर ज्ञान में पूर्ण हुए बिना कर्मफल - त्याग अचूक और दृढ़ भी कोई नहीं बन सकता । इन तीनों का आपस में घनिष्ठ संबंध है । इन तीनों के सहित भक्तियोग के साधन के साथ - साथ कर्मयोग का साधन करता हुआ वह सिद्ध जैसे - जैसे प्रेमी भक्त ईश्वर - संबंधी ज्ञान - ध्यान में तथा तत्सम्बन्धी ज्ञान और ध्यानाभ्यास में बढ़ता हुआ जाकर अंत में पूर्ण होगा , वैसे - वैसे वह कर्मफल - त्याग में भूलों को छोड़ता हुआ अंत में कर्मफल - त्याग में पूर्ण होकर , कर्मयोग में सिद्ध होगा । ज्ञान , ध्यान तथा ईश्वर - प्रेम की अवहेलना करके केवल कर्मफल त्यागने का गौरव अनुचित ही नहीं , बल्कि वह ' आप गए और घालहिं आनहिं ' के नतीजे पर पहुँचा देगा , यह सुनिश्चित है । ध्यानयोगाभ्यास करने का सिद्धांत और उस अभ्यास की ओर प्रेरणा तथा उसमें मिलनेवाले विघ्नात्मक प्रलोभनों का बचाव पठन - पाठन और मनन द्वारा प्राप्त ज्ञान पर निर्भर है एवं अनुभूतियुक्त ज्ञान में बढ़ाव और उसके अपरोक्ष रूप की पूर्णता , ध्यान - योग में वृद्धि और उसकी परिपूर्णता पर निर्भर है । भगवान बुद्ध की ' धम्मपद ' नाम्नी पुस्तिका के ' भिक्खुवग्गो ' में है 

"नत्थि झानं अपञस्य पञ्जा नत्थि अझायतो । यम्हि झानञ्च पञ्जा च स वे निब्बाण सन्तिके । 

अर्थ - प्रज्ञाविहीन ( पुरुष ) को ध्यान नहीं ( होता ) है , ध्यान ( एकाग्रता ) न करनेवाले को प्रज्ञा नहीं हो सकती । जिसमें ध्यान और प्रज्ञा ( दोनों ) हैं , वही निर्वाण के समीप है ॥१३ ॥ 

     अतएव ध्यानयोग गीता का निज , परम प्रिय , अत्यंत उपयोगी और भक्तियोग - साधन का साराधोर है । 

     अब इस अध्याय में भक्त के लक्षण और आचरणीय गुणों का वर्णन ही बच रहा है । वह यह है कि प्राणिमात्र के प्रति द्वेषहीन होना , सबसे मित्रता , सुख - दुःख में समान रहना , क्षमावान होना , सदा संतोषी रहना , योगी होना , दमशील होना , दृढ़ निश्चयी होना , न आप किसी से उद्वेग पानेवाला , न दूसरा उससे उद्वेग पावे , हर्ष , क्रोध , ईर्ष्या और भय से मुक्त , इच्छा - रहित , पवित्र , दक्ष ( अमूढ़ या सुचतुर ) , तटस्थ वा निरपेक्ष , अचिन्त्य , संकल्पहीन , आशाहीन , शुभाशुभ - त्यागी ; शत्रु - मित्र , मानापमान , शीतोष्ण , सुख - दुःख और स्तुति - निंदा में समतावान , स्वल्पभाषी , अनिकेत ( अपने रहने के घर में ममत्व नहीं ) और स्थिर चित्तवाला होना - भक्तयोगी के ये सब गुण और आचरणीय लक्षण हैं । 

॥ द्वादश अध्याय समाप्त ॥ 

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इस अध्याय के बाद वाले अध्याय 13 को पढ़ने के लिए     यहां दबाएं


प्रेमियों ! आप लोगों ने गुरु महाराज कृत "श्री गीता योग प्रकाश" के तीसरे अध्याय में जाना कि dhyaanayog se kya nukasaan ho sakata hai? dhyaan yog mein baratane vaalee saavadhaanee kya hai? praanaayaam karana chaahie ya dhyaan yog?geeta dhyaan yog kee prerana detee hain ya praanaayaam karane kee? bhakti yog ka sampoorn abheesht kya hai? karm phal kaise chhootega? pragya baal kaise ban sakate hain? saada ko kaun se kaam avashy karanee chaahie? saadhakon ka aacharan kaisa hona chaahie? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका याक्ष कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। इस लेख का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है । इसे अवश्य  देखें।



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G12 (ग) ध्यानयोग से क्या नुकसान हो सकता है ।। Shrimad Bhagwat Geeta- 12th Chapter G12 (ग)  ध्यानयोग से क्या नुकसान हो सकता है ।। Shrimad Bhagwat Geeta- 12th Chapter Reviewed by सत्संग ध्यान on 8/04/2018 Rating: 5

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